पांडुलिपियों और बंदूकों की डगर पर रोहू मछली और जलेबी
Volume 1 | Issue 3 [July 2021]

पांडुलिपियों और बंदूकों की डगर पर रोहू मछली और जलेबी <br>Volume 1 | Issue 3 [July 2021]

पांडुलिपियों और बंदूकों की डगर पर रोहू मछली और जलेबी

Ashutosh Bhardwaj

Volume 1 | Issue 3 [July 2021]

एक

एक बार एक विद्यार्थी गुरूकुल में पढ़ने जाता है। गुरु अपनी पत्नी को निर्देश देते हैं कि उसे सिर्फ चावल और अरंडी का तेल दिया जाये। विद्यार्थी इसे गुरु का आदेश मान भक्त-भाव से ग्रहण करता है। कभी शिकायत नहीं करता, कड़वे स्वाद पर उसका ध्यान नहीं जाता। कई बरस बाद जब वह थोड़ी अनिच्छा जाहिर करता है, गुरु कहते हैं — तुम्हारी शिक्षा पूर्ण हुई। तुम अब बाहरी दुनिया में कदम रख सकते हो।

इस कथा का उल्लेख ए के रामानुजन ने हिंदू समाज की खाद्य-रीतियों पर अपने निबंध में किया है। हिंदू मान्यताओं का अभिन्न अंग प्रतीत होती यह कथा आग्रह करती है कि ब्रह्मचर्य के दौरान स्वाद-इंद्रियों का शमन आवश्यक है। ज़रा-सी ढील तमाम इच्छाएँ जगा सकती है, आपको ज्ञान के मार्ग से दूर ले जा सकती है। यह प्रस्तावना कि सादा भोजन अस्तित्व की किसी ऊँची अवस्था पर पहुँचने के लिए अनिवार्य है, उन मिथकों में है जिन्हें तमाम भारतीय अपनी सभ्यता का गुण मानते हैं, जबकि सच्चाई थोड़ी भिन्न है। देश के एक हिस्से में वर्जित भोजन दूसरी जगह बड़े प्रेम से परोसा और खाया जाता है। ऐसे भी गुरुकुल हैं, जिनकी रसोई महकती रहती है।

मैं एक बार असम के विधानसभा चुनाव कवर करने गया था। कई रास्ते बदलते हुए ब्रह्मपुत्र पार कर मैं मजुली पहुँचा, नदी का महान द्वीप जहाँ वैष्णव सम्प्रदाय के कई मध्ययुगीन गुरुकुल और मठ स्थित थे। भिक्षु यहाँ निर्गुण की उपासना करते थे, पुराने ग्रंथों की नयी पांडुलिपियाँ लिखते थे। उन्हें मछली भी बहुत पसंद थी, जो मथुरा और वृंदावन जैसे देश के कई दूसरे भागों में वैष्णव उपासकों के लिए एकदम वर्जित थी। मजुली के इस गुरुकुल में मछली रसोई तक सीमित नहीं थी। मछली पूरे मठ में मचलती थी — बड़ी मूर्तियों से लेकर पट्टिकाओं तक। आउनति सत्र नामक एक वैष्णव विहार में मछली के आकार वाली पट्टिका पर असमिया भाषा में एक संस्कृत श्लोक लिखा हुआ था, जिसका अर्थ था : “मैं जो कुछ लिख रहा हूँ वह गलत हो सकता है क्योंकि महाबली भीम भी युद्ध में पराजित हो गए थे।”


Photo Courtesy – Ashutosh Bhardwaj

इसी द्वीप पर प्रोफेसर डंबरूधर नाथ रहते थे जिन्होंने अपना बचपन ऐसे ही गुरुकुल में बिताया था और जो अब ब्रह्मपुत्र के किनारे निर्मित होने वाले मजुली विश्वविद्यालय के संस्थापक उप-कुलपति थे। उन्होंने बताया कि यह श्लोक कई संस्कृत ग्रंथों के अंत में लिखा रहता है। पांडुलिपियों की नकल तैयार करने वाले अनाम लेखक अक्सर इस श्लोक को पांडुलिपि के अंत में जोड़ दिया करते थे। यह उनकी सम्भावित चूक का विनम्र स्वीकार था कि शायद उन्होंने यह पाण्डुलिपि लिखते वक़्त कुछ ग़लतियाँ कर दी हों, और ‘मूल’ ग्रंथ से थोड़ा विचलन हो गया हो।


Prof. Dambarudhar Nath

Photo Courtesy – Ashutosh Bhardwaj

यही वजह थी कि प्राचीन और मध्यकालीन कृतियों की कोई मान्य पाण्डुलिपि बहुत कम मिलती थी। अनेक हाथों से गुजरती ये पांडुलिपियाँ आगामी पीढ़ियों तक पहुँचती थीं। महानतम लेखक के लिये भी किसी ग्रंथ की ‘हूबहू’ पांडुलिपि तैयार करना आसान नहीं था। बोर्खेस ने कहा भी था कि जब आप किसी कृति को ज्यों का त्यों लिखते हैं, वह एक नया टेक्स्ट बन जाती है। मुझे लेकिन यह भी लगा कि यह श्लोक उस ग्रंथ में अनेकार्थता की सम्भावना पैदा करने और उसके पाठ को जटिल बनाने की आख्यायकीय युक्ति भी हो सकती थी। साथ ही यह श्लोक उस ग्रंथ पर अपनी उँगलियों के निशान छोड़ जाने की उस अज्ञात पांडुलिपि-लेखक की अव्यक्त आकांक्षा का सूचक भी हो सकता था।

विनम्र स्वीकार हो या लेखकीय हस्ताक्षर, किसी ग्रंथ के अर्थ-बाहुल्य की सम्भावना बतलाते इस श्लोक को वैष्णव भिक्षुओं ने उस इलाक़े की सबसे प्रिय रोहू मछली पर अंकित किया था, जो ख़ुद अनेक विधियों से पकाई जाती थी। इस तरह यह श्लोक ग्रंथ और भोजन दोनों के मूल स्वभाव का सूचक था। किसी किताब की तरह भोजन के बारे में भी कोई एक निश्चित कथन नहीं हो सकता। न तो भोजन के बारे में कोई एक मान्यता है, न कोई एक मान्य पाक-विधि। आपकी थाली में अगर सिर्फ़ चार चीज़ें हैं, तो तय मानिये कि आपको नहीं मालूम होगा कि कितने महाद्वीपों और महासागरों को पार कर कोई पकवान आपके पास आया है।

कई शताब्दियों बाद उम्बेर्टो इको के महान उपन्यास के आख्यायक को जब एक पांडुलिपि मिलती है, वह उसकी नकल उतारते वक़्त अपनी सम्भावित चूक को इसी तरह स्वीकार करता है। ‘द नेम ऑफ़ द रोज़’ में सुअर को पकाने की विधि का विस्तृत वर्णन भी है। अगर हालिया काटे गये सुअरों के खून को अच्छे से फेंटा जाये तो यह जमेगा नहीं। इस खून से बने स्वादिष्ट पकवान ईसाई भिक्षु बड़े चाव से खाते हैं।

संस्कृत ग्रंथ छप्पन भोग का विशद वर्णन करते हैं, देवता भी स्वाद-रस में डूबते हैं। वाल्मीकि रामायण के एक प्रसंग में अयोध्या से जाते वक़्त राम, सीता और लक्ष्मण नाव से गंगा पार कर रहे हैं। पानी के बीच पहुँचने पर सीता गंगा से वायदा करती हैं कि सुरक्षित वापस लौटने पर वे “एक सहस्त्र घड़े सुरा और मांस युक्त चावल” उन्हें अर्पित करेंगी। अनुशासन और सतीत्व की प्रतीक सीता द्वारा गंगा मैया को शराब और मांस अर्पित करते देख अगर आप अचम्भित हों तो उपनिषदों की ओर मुड़ना चाहिए जहाँ अन्न को ब्रह्म कहा गया है।

रामानुजन की कथा में निहित मान्यता पर प्रश्न करने के बाद हम दो प्रस्तावनाएँ दे सकते हैं। पहली, अपने प्रियजनों के लिए खाना बनाना साधना से कम नहीं। जब हवा में उठती मसालों की गंध आँच पर रखे बर्तनों से उमड़ती भाप को छूती है, आपकी तमाम बेचैनियाँ बेहतरीन पकवान से हासिल सुख में घुल जाती हैं। दूसरे, अच्छा भोजन आपको गहरा आनंद दे सकता है। कुछ चीज़ें कामोत्तेजना जगाती हैं, और कई बार बहुत साधारण चीज़ भी कामुक अनुभव दे सकती है।

हम फिर से पूर्वी सभ्यता की एक कृति की ओर मुड़ सकते हैं, जापानी फ़िल्म ‘टेम्पोपो’ जो भोजन-रस का रोमांचक वर्णन करती है। एक विलक्षण दृश्य में नायक नायिका को एक हल्के उबले अंडे की पीली ज़र्दी खिलाता है, और वह कामुकता के चरम को छू लेती है। वह ज़र्दी को अपने मुँह में लेकर नायिका के मुँह के भीतर कुछ ऐसी नज़ाकत से ठहरा देता है कि यह ज़र्दी लिंग का प्रतीक बन जाती है। वह इसे पूरी तरह नहीं निगलती, पीले गोले को अपने मुँह में फिराती है और उत्तेजना और मदहोशी के सागर में डूबती जाती है।

ग़ौर करें, कामसूत्र में वर्णित चौंसठ कलाओं में विभिन्न प्रकार के व्यंजन और पेय बनाने की कला शामिल है।

मेरी फ़्रेंच मित्र जूडिथ मिसराही-बराक ने मुझे हाल ही एक अन्य फ़िल्म ‘बेबेटेज फ़ीस्ट (बेबेटे का भोज)’ के बारे में याद दिलाया था। भोजन के सुख पर बनी यह फ़िल्म दो वृद्ध साध्वी स्त्रियों की कथा है जो उन्नीसवीं सदी के डेनमार्क में एक प्रोटेस्टेंट समुदाय में रहती हैं। वे अनुशासित जीवन जीती हैं, सादा भोजन करती हैं और किसी भी क़िस्म के आनंद को पाप मानती हैं। उन्हें लगता है कि अनुशासन और संयम से ही पाप से मुक्ति सम्भव है — वे पाप जिनके बारे में हमें कभी पता नहीं चलता, इसलिए वे उनकी ख़याली उपज प्रतीत होते हैं। एक दिन बाहरी दुनिया की निवासी बेबेटे उनके पास आती है। वह पेरिस में हो रही हिंसा से बचती भागती वहाँ आ गयी है। वह बहनों से शरण माँगती है, जिसके एवज़ में वह उनकी सेवा किया करेगी। दोनों बहनें शुरुआत में उसे हिचकते हुए अनुमति देती हैं, लेकिन बेबेटे जल्द ही उनकी प्रिय बन जाती है।

कई साल बाद वह एक लॉटरी जीतती है जिसकी रक़म से वह पेरिस वापस लौट सकती है। जाने से पहले वह इस समुदाय का आभार व्यक्त करना चाहती है, लेकिन वह आभार जताने का सिर्फ़ एक तरीक़ा जानती है — वृहद भोज। वह लॉटरी की राशि इस भोज में खर्च कर देती है। पकवान बनते देखकर वृद्ध स्त्रियाँ शुरु में असहज होती हैं, इसे पतन का प्रतीक मानती हैं। लेकिन जब वे धीरे-धीरे कौर तोड़ती हैं, खाना शुरू करती हैं, उनका शक दूर हो जाता है और वे अनजान रहे आए इस सुख से साक्षात्कार करती हैं। यह महाभोज आध्यात्मिक ऊँचाइयों पर पहुँच जाता है, साध्वी स्त्रियों की देह और आत्मा को तृप्त करता है और खाने की मेज मुक्ति का स्थल बन जाती है।


Artwork Courtesy – Saronik Bosu

दो

भोजन सुख देता है, तो शराब ऐसे आत्मीय संवाद सम्भव करती है जहाँ जीवन की तमाम गाँठें खुलती जाती हैं। बढ़िया भोजन आपको संतृप्त करता है, शराब आत्मोद्घाटन की ओर ले जाती है। निर्मल वर्मा ने उन लम्बी और तनहा शामों के बारे में लिखा है जो वे यूरोप के शराबघरों में उन्नीस सौ साठ के दशक में बिताया करते थे, “जब रात इतनी बढ़ जाती थी कि घर लौटना कायरता जान पड़ता था।” निर्मल की अनेक कहानियाँ इन्हीं शामों से जन्मी थीं। शराब में धुत अजनबी उनकी मेज़ के क़रीब आकर बैठा ज़ाया करते थे। “यू आर अ क्वायट इंडियन, आरंट यू?” वे उनसे पूछते और अपना जीवन उनके सामने उघाड़ने लगते। “उनकी ऊपर से अनर्गल दीखने वाली आत्मकथाओं में मुझे पहली बार उन अँधेरे कोनों से साक्षात्कार हुआ, जिन्हें मैं छिपाकर रखता आया था। आज मैं जो कुछ हूँ उसका एक हिस्सा इन अज्ञात लोगों की देन है,” निर्मल ने लिखा था।

उन्होंने ‘डेढ़ इंच ऊपर (1966)’ को ऐसी “परेशान और ज्वर-ग्रस्त” कहानी बताया है जो किसी शराबघर में बीती एक शाम से जन्मी थी। यह कहानी एक यहूदी का मार्मिक एकालाप है जो अपना जीवन एक शराबघर में किसी अजनबी के सामने उघाड़ रहा है। कई दशक पहले जर्मनी की गेस्टापो पुलिस ने उसकी पत्नी की हत्या कर दी थी। अपनी शादी के सात वर्षों तक उसे कभी एहसास नहीं हुआ कि वह एक राजनीतिक कार्यकर्ता थी, नाज़ी सरकार के विरुद्ध काम करती थी। उसकी गिरफ़्तारी के बाद पुलिस ने उसके पति को यातनाएँ दीं कि वह उसके राज बता दे, लेकिन वह कुछ नहीं जानता था। कई बरस बाद अब उसे पुरानी स्मृतियाँ तड़पाती थीं। “मुझे लगा था कि उसने मुझे अंधेरे में रखकर छल किया। बार-बार यह ख़्याल मुझे कोंचता था कि स्वयं मेरी पत्नी ने मुझे अपना विश्वासपात्र बनाना उचित नहीं समझा। लेकिन बाद में गेस्टापो के सामने पीड़ा और कष्ट के असह्य क्षणों से गुज़रते हुए मैं उसके प्रति कृतज्ञ-सा हो जाता था कि उसने मुझसे कुछ नहीं कहा। उसने एक तरह से मुझे बचा लिया था।”

“ज़रा सोचिए, मेरी यन्त्रणा कितनी अधिक बढ़ जाती अगर मेरे सामने क़बूल करने का रास्ता खुला होता! आप मजबूरी में बड़ी-से-बड़ी यातना सह सकते हैं, लेकिन अगर आपको मालूम हो कि आप किसी भी क्षण उस यातना से छुटकारा पा सकते हैं, चाहे उसके लिए आपकी अपनी पत्नी, अपने पिता, अपने भाई के साथ ही विश्वासघात क्यों न करना पड़े…मुझे कभी-कभी लगता है कि निर्णय की इस यातना से मुझे बचाने के लिए ही मेरी पत्नी ने अपना रहस्य कभी मुझे नहीं बताया।”

इतने दशक बाद वह यहूदी अपने भय और संशय एक अजनबी के सामने बीयर पीते हुए उजागर कर देता है। नाज़ी शासन के दौरान यहूदी त्रासदी का आईना यह कहानी शराब से जन्मा एकालाप है, जिसके शब्दों में विश्व युद्ध और नाज़ी आतंक से बहुत दूर ठहरा पाठक भी मानव अस्तित्व के इस मूल प्रश्न से रूबरू हो सकता है कि विकल्पों की अनुपस्थिति या विभिन्न विकल्पों के बीच चुनाव किस तरह मनुष्य को तोड़ता है। पहली अवस्था में सब कुछ नियतिबद्ध दिखाई देता है, आप सरलता से उपलब्ध एकमात्र विकल्प की तरफ़ चल देते हैं, जबकि दूसरी अवस्था में तमाम विकल्पों के बीच ख़ुद को क़ैद पाते हैं।

मेरा पत्रकार जीवन मुझे अक्सर ऐसी कठिन जगहों पर और विकट इंसानों के बीच ले जाता है, जहाँ उनके क़रीब आने के लिए शराब एकमात्र साधन नज़र आती है, लेकिन उस लम्बी शाम के ख़त्म होने तक हमारे डर मिट चुके होते हैं और दोस्ती की शुरुआत हो जाती है। शराब को अक्सर संवाद शुरु करने का अच्छा माध्यम माना जाता है, लेकिन शराब उम्र और अवकाश की सीमाएँ मिटाने वाला एक पवित्र पेय भी है।

इस लेख का अंत मैं अपने एक स्मरणीय भोज से करता हूँ, जो पत्रकारिता के दौरान सम्भव हुआ था। अपने छठे दशक में चलता नक्सल आंदोलन भारत का सबसे लम्बा हिंसक क्रांतिकारी आंदोलन है। मार्च 2014 में मैंने इस क्रांति की राजधानी अबुझमाड़ जंगल के नक्सल शिविरों में तीन हफ़्ते बिताये थे। माओवादी नेता अपनी प्लाटून के लिए महीने में एक बार मटन का प्रावधान रखते हैं। पार्टी इस जश्न की रात के लिए अलग से पैसा देती है। जब मेरी वापसी का समय  आया, महाभोज का दिन अभी दूर था। वे मुझे भव्य विदाई देना चाहते थे, लेकिन पार्टी कोष से असमय पैसा कैसे निकाला जाये? कल मुझे जाना है, लेकिन आज रात मटन कैसे बन सकता है? माओवादियों ने जल्दी से बैठक बुलाई, तय किया कि अपने वरिष्ठ नेताओं को बाद में समझा देंगे, लेकिन उन्हें अपने मेहमान को विदाई देनी है। उन्होंने जब मुझे चहकते हुए इस भोज के बारे में बताया, मैंने उन्हें यह कहकर निराश कर दिया कि मैं शाकाहारी हूँ।

उन्हें भरोसा नहीं हुआ। कोई मटन के बगैर कैसे रह सकता है? शहर में लोग कैसे रहते हैं? लेकिन विदाई तो देनी है, और तब कोई सुझाता है कि मेरे लिए जलेबी मँगवाई जाए। बाजार कई घंटे दूर है, एक गाँववाले को तुरंत साइकिल पर रवाना किया जाता है। जब तक पहले ही कई दिन पुरानी जलेबी आती हैं, वे सूख कर पीली पड़ चुकी हैं। हम सब जमीन पर बैठ जलेबियाँ खाते हैं, चारों तरफ़ हथियारबंद गुरिल्ला लड़ाके तैनात हैं। मैं पिछले तीन हफ़्तों से इन नक्सल शिविरों में पुलिसिया हमले के मँडराते भय के साथ जी रहा था। किसी भी क्षण किसी गोली या ग्रेनेड से मेरी मृत्यु हो सकती थे। लेकिन इस आख़िरी दिन सृष्टि पर अपनी आस्था को सघन करने के लिए मेरे लिए सिर्फ़ कुछ बासी जलेबियाँ काफ़ी थीं।


Artwork Courtesy – Saronik Bosu

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