अनुवाद: कनक अग्रवाल
एक तो माँ की स्थिति पहले ही पीड़ाजनक थी, ऊपर से डॉक्टर ने सलाह दी कि हम उन्हें नाक से दूध पिलाएं । उनके देखभाल की जिम्मेदारी मेरी थी, और मेरी पहली प्रतिक्रिया थी, घृणा। एक ऐसा शख़्स जिसने अपना अधिकांश जीवन राइनाइटिस के साथ बिताया, उसके लिए नाक सिर्फ एक असुविधाजनक, कष्टदायी अंग था, जो हरा, चिपचिपा, अप्रिय स्नॉट पैदा करता है; जिसे टिश्यू की मदद से तुरंत फेंक देना चाहिए। नाक साफ़ करने का तरीका मुझे माँ ही ने सिखाया था, और इस बात का एहसास मुझे बाद में हुआ कि जिस सलीके से आप इस कार्य को अंजाम देते हैं, वह आपके वर्ग और पालन-पोषण का भी सूचक है। नाक, या यूं कहें कि उसका आकार अक्सर अच्छे रूप का मुख्य मार्कर होता है, खासकर भारतीय उपमहाद्वीप में। ना बहुत छोटा, न ही बहुत लंबा, न बल्बनुमा और न ही नुकीला, नाकों के मूल्यांकन के कुछ सख्त मानदंड हैं, विशेषकर महिलाओं के। मेरी उभरी हुई नाक अक्सर लोगों के उपहास का निशाना बनती रही है। संक्षेप में कहूं तो, नाक मेरे लिए जीवन भर सिर्फ घृणा और बेचैनी का कारण रही। ऐसी पृष्ठभूमि में, माँ को खाना खिलाना, जिन्हें नाक से एक पॉलीविनाइल क्लोराइड की ट्यूब लटका कर अस्पताल से छुट्टी दी गई, कोई चुनौती से कम न था। आखिर वह चीज़ जिसे हम भोजन कहते हैं, प्यार करते हैं, संजोते हैं और जिसके लिए आतुर रहते हैं, ट्यूब के ज़रिए नाक से कैसे गुजर सकती है? ऐसे में मुझे वह कहावत याद आई, ‘जो असाध्य है, उसे साथ लेकर जीना ही साध्य है।’
Artwork – Gita Viswanath
मेरा पहला प्रश्न था, ‘डॉक्टर साहब, क्या यह ट्यूब स्थायी होगी?’ उनके उत्तर ने मुझे झकझोड़ दिया। स्पर्श के साथ, स्वाद को सबसे आनंददायक इंद्रियों में से एक माना गया है; इसे छीन लेना मानो पाप है। नाक से भला अब मां कैसे अपने पसंदीदा पच्चड़ी; कर्नाटक और आंध्र की चटनी का आनंद ले पाएंगी? पच्चड़ी तो इतनी बहुमुखी है कि तोरई के छिलकों से भी बनाई जा सकती है। अब हर दो घंटे उस ट्यूब की मदद से एक प्रोटीन शेक माँ को दिया जाने वाला था। बहरहाल, उन्हें होश संभालते देख मेरी घृणा धीरे धीरे कम होती गई।
मैंने नाक से जुड़े अपने विचारों को पेट और अंततः जीवित रहने के वैकल्पिक मार्ग की ओर मोड़ दिया। एंटरल फीडिंग, यानी गैर-मौखिक पोषण का इतिहास 3,500 साल पुराना है, जिसकी शुरुआत ग्रीस और मिस्र से हुई। हिप्पोक्रेट्स को मांस शोरबा और फेंटे अंडे मलाशय से कैथेटर द्वारा पारित करने के लिए जाना जाता था। कम से कम नाक से दूध पिलाने के मामले में, हम उस अंग का उपयोग करते हैं जो मुँह के पड़ोस में स्थित है। रेक्टल फीडिंग सभी संस्कृतियों में गंदा, बदबूदार, एवं अवर्णनीय माना जाता है। संयुक्त राज्य अमेरिका के बीसवें राष्ट्रपति श्री जेम्स गारफील्ड शायद इस उपचार के सबसे प्रसिद्ध प्राप्तकर्ता रहे। 1881 के असासिनेशन प्रयास में घायल होने के उपरांत लगभग अस्सी दिनों तक हर चार घंटे उन्हे गोमांस शोरबा और व्हिस्की चढ़ाई जाती थी। 1940 तक मलाशय द्वारा एंटरल फीडिंग सामान्य थी, जिसमें मांस के साथ मोम और स्टार्च मिलाना, तम्बाकू, ब्रांडी और रेड वाइन का सेवन भी शामिल था। इन दिनों एंटरल फीडिंग का सबसे सामान्य रूप नाक ही है। यह एन.जी.टी (नेसोगैस्ट्रिक ट्यूब) के रूप में भी जाना जाता है, जो जॉन अल्फ्रेड राइल के नाम पर ‘राइल्स ट्यूब’ कहलाया, जिन्होंने अठारहवीं सदी के ब्रास-टिप्ड ट्यूब को संशोधित किया, और जिसका उपयोग आज तक किया जा रहा है।
Artwork – Gita Viswanath
भले ही भोजन एक ऐसा अनुभव है जिसमें सभी पांच इंद्रियां शामिल हैं, फिर भी इसके स्वाद की प्रमुख भूमिका में जुड़ी होती है जीभ। अच्छा, बुरा, स्वादिष्ट, नीरस, सभी का प्रमाणीकरण जीभ से ही होता है। सुसज्जित भोजन को इसलिए नापसंद करना क्योंकि वह खट्टा था, या सुगंधित भोजन के लिए नाक मुंह सिकोड़ना क्योंकि वह नमकीन था, आम बात है। सभी पांच इंद्रियों में केवल स्वाद ही ऐसी भावना है जिसका अस्तित्व हमारे भीतर है, अन्य इंद्रियों की तरह शरीर से बाहर नहीं। उदाहरण के लिए, हम एक भूदृश्य देखते हैं और उसे नाम देते हैं सुंदर, संगीत का एक टुकड़ा सुनते हैं और उसे मधुर कहते हैं, एक रेशमी साड़ी छू कर उसे कोमल कहते हैं।लेकिन भोजन को देख कर उसे स्वादिष्ट नहीं कह सकते। ऐसा कहने के लिए ज़रूरी है कि हम इसे चखें, एक कौर अपने मुंह में डालें। और इसी स्वाद की अनोखी अनुभूति और आंतरिकता की वजह से यह अत्यधिक व्यक्तिपरक है। उदाहरण के लिए, जब हम भूखे होते हैं तो रोजमर्रा के दाल चावल का स्वाद भी बेहद अच्छा लगता है। इतना ही नहीं। स्वाद का संबंध व्यक्तिगत शरीर की पोषण संबंधी आवश्यकताओं से भी होता है। वरना कैल्शियम की कमी वाले बच्चे की चाक खाने की प्रवृत्ति को कोई कैसे समझा सकता है? कहने का मतलब यह कि सवाल स्वाद की अनुभूति, स्वाद के रिसेप्टर्स, पैपिला और टेस्ट बड्स जैसे वैज्ञानिक सिद्धांतों से परे है।
एक दिन, जब माँ की समझने- बोलने की क्षमता में कुछ सुधार हुआ तो उन्होंने चारनम, यानी कि रसम चावल खाने की इच्छा जताई। मन हुआ मैं खुशी से नाच उठूं। चारू/रसम/सारू, इमली से बना एक दक्षिण भारतीय, सूप नुमा व्यंजन है जो सभी दक्षिणी राज्यों में खाया जाता है। इसे तुअर दाल, टमाटर, भुने हुए धनिये, लाल मिर्च, जीरा और काली मिर्च के कूटे हुए पाउडर के साथ तैयार किया जाता है। (इस रसम पाउडर के उतने ही प्रकार हैं जितने की बनाने वाले!) गरम घी में राई, हींग और करी पत्ते का तड़का लगते ही इसकी खुशबू चारों ओर फैल जाती है। रसम के कई रूप मौजूद हैं: बिन दाल की रसम कर्नाटक के तेलुगु भाषी भाग में चिंचारू के नाम से प्रसिद्ध है। टमाटर रसम, नींबू रसम, लहसुन रसम, कोकम सारू और यहां तक कि छाछ रसम भी लोकप्रिय हैं। रसम का मसला इतना गंभीर है कि इस मुद्दे पर गरमागरम बहसें और परिवारों में विभाजन की बातें होना तक मुमकिन है जहां यह सौम्य, स्वास्थ्यवर्धक तरल पदार्थ अक्सर चर्चा का विषय बन जाता है। उदाहरण के तौर पर, मैसूर रसम की निंदा इसलिए की जाती है कि इसमें नारियल का उपयोग होता है और इसे बनाने वाले अक्षम रसोइए कहलाते हैं। ब्राह्मणों की बात करें तो वे रसम में लहसुन के उपयोग पर अपनी नाक सिकोड़ लेते हैं। इसी तरह रसम के शुद्धतावादी अनानास रसम या सहजन रसम जैसी प्रायोगिक विविधताओं का पुरजोर विरोध करते हैं।
इन सभी भारी – भरकम रसवेदी बातों को याद रखते हुए मैंने रसम बनाने का साहस किया, ऐसा स्वादिष्ट रसम जो नाक के माध्यम से पिलाया जाए। मैं ख़ुश थी कि माँ ने कुछ खाने की इच्छा जताई थी। मैंने रसम चावल को मिक्सर में पीसा और एन.जी. ट्यूब में डाल दिया, सोचते हुए कि निश्चित रूप से ट्यूब के अविष्कारक राइल्स आज अपनी कब्र में बेचैन होंगे! मैं एक पल के लिए स्तब्ध रह गई। मां में कहा कि रसम चावल बड़े स्वादिष्ट बने हैं। मुझे लगा, सुगंध भोजन का स्वाद बढ़ाता है; इसलिए वह शायद स्वाद और सुगंध को भ्रमित कर रही है। फिर भी, वह कह सकती थी, ‘इसकी खुशबू अच्छी है।’ स्वाद तभी सक्रिय होता है जब भोजन हमारी जीभ की सतह पर स्वाद कलिकाओं के संपर्क में आता है, जो जीभ, अन्नप्रणाली, गाल और एपिग्लॉटिस की सतह के ऊपरी भाग में पाए जाते हैं। स्वाद कलिकाओं के रिसेप्टर्स पांच बुनियादी स्वादों को पहचानते हैं – मीठा, नमकीन, खट्टा, कड़वा और उमामी; आखिरी वाला स्वाद ग्लूटामेट है जो कि मांस, पनीर, सोया सॉस आदि में पाया जाता है। दिलचस्प बात यह है कि मसालेदार एक स्वाद नहीं, बल्कि लाल/हरी मिर्च और काली मिर्च में पाए जाने वाले पदार्थ कैप्साइसिन से होने वाली एक नर्वस प्रतिक्रिया है।
तो फिर माँ चारनम का स्वाद कैसे चख सकती थी? मैंने उन्हें छेड़ते हुए पूछा, ‘क्या रसम की खुशबू से आपकी नाक में गुदगुदी हो रही है?’ वह मुस्कुराई। जब हम नाक से खाते हैं तो हमारी भाषा या बोली का क्या होता है? जैसे कि हम बच्चों को शरीर के विभिन्न भागों को इंगित करके सिखाते हैं, बताते हैं कि वे क्या भूमिका निभाते हैं। ‘हम अपनी आंखों का क्या करते हैं?’ हम बच्चे से पूछते हैं और जवाब मिलता है, ‘हम आँखों से देखते हैं।’ यह प्रक्रिया विभिन्न अंगों के साथ दोहराते हैं। यदि कोई बच्चा कह दे कि नाक से खाते हैं, हम इसे गलत कहते हैं। कुछ महीनों पहले तक मैं भी ऐसा ही करती। मगर बच्चा गलत नहीं है। नाक से खाने का एक ऐसा रूप मौजूद है जिससे मैं भलीभांति परिचित हो चुकी थी, जब से माँ ने कंजेस्टिव हार्ट फेलियर के बाद बिस्तर पकड़ा था।
इसी क्रम में सोचे तो, मुंह में पानी लाने वाले जैसे शब्दों का क्या होता है? क्या हम इसे नाक से पानी आना कहेंगे? हालाँकि इसका मतलब यह निकल सकता है कि खाना तीखा है। जीभ पर आग लगी हो तो क्या उचित होगा कहना कि नाक जल रही है? और जब आप किसी के प्रति असहज महसूस करते हैं, तब? वह मेरी नाक में बुरा स्वाद छोड़ गया? अब तक खाए सबसे कोमल मांस का वर्णन कैसे करेंगे? मानो वह मेरी नाक में पिघल गया? जैसा कि स्पष्ट है, मुँह और जीभ आधिपत्य रखते हैं स्वाद पर, जो हमारी बोलचाल में साफ ज़ाहिर है।
क्या माँ रसम के स्वाद को अपनी याद की गहराई से निकाल कर महसूस कर रही थी? क्या हमारा मस्तिष्क स्वाद की स्मृतियां संग्रह करता है? हम सभी ने किसी सुंदर स्थान को याद कर उसे दोबारा जीने का अनुभव किया है। लेकिन क्या हम स्वाद को भी यूं ही याद रख सकते हैं? यदि मस्तिष्क में देखने और सुनने के केंद्र हैं, तो क्या स्वाद के लिए भी है? लंबे समय से हमें यह मालूम था कि स्वाद कलिकाएँ मस्तिष्क को सक्रिय करती हैं लेकिन वह विशिष्ट जगहें जो विभिन्न इंद्रियों की पहचान करती हैं, उनकी जांच कई वर्षो तक नहीं हो पाई। चुंबकीय इमेजिंग की मदद से हाल ही में शोधकर्ताओं ने मानव मस्तिष्क में स्वाद के केंद्र को खोज निकाला है। जैसा कि कॉर्नेल यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर एडम एंडरसन कहते हैं, ‘हालांकि हम लंबे समय से अपनी बाहरी इंद्रियों के कॉर्टिकल क्षेत्रों को जानते हैं, अब हमारे पास मानव गस्टोटैरी कॉर्टेक्स संबंधी सबूत भी मौजूद हैं।’* देखा जाए तो यह अभी उस स्वाद तक सीमित है जो हमारी जीभ महसूस करती है। इसलिए मेरी शंकाएँ अभी भी अनसुलझी ही हैं : क्या होता है जब नाक के मुकाबले जीभ को दरकिनार कर दिया जाता है? क्या मस्तिष्क को तब भी स्वाद के संदेश पहुंचते हैं? मीठा, खट्टा, कड़वा, नमकीन?
माँ शायद अब स्वाद को उस संकीर्ण रूप में अनुभव नहीं करती जैसा कि अमूमन समझा जाता है। उनके लिए स्वाद शारीरिक विज्ञान की यांत्रिकी से ऊपर उठ चुका है। ख़ास कर, रसम, जो बचपन से ही उनके दैनिक भोजन का अनिवार्य हिस्सा रहा; जिसे उन्होंने चावल में मिलाया और छोटे छोटे गोले बना, बालपन से हमें अपने हाथों से खिलाया, देखो, यह बाबा का, यह माँ का, यह चिड़िया का, यह कुत्ते का, गाय का वगैरह वगैरह। उनके लिए रसम चावल वह था जिसे सांभर चावल और दही चावल के बीच उसी सख्त क्रम में परोसा जाता जैसे अधिकतर दक्षिण भारतीय घरों में परोसा जाता है; रसम वह था जो मां की रसोई के प्लेटफार्म के दाहिनी ओर की दूसरी शेल्फ पर एक विशिष्ट बर्तन में रखा जाता; रसम वह था जिसे मां रोज़ाना अचूक स्थिरता के साथ तैयार किया करती… मेरा मानना है कि यह सब और इसके साथ भी बहुत कुछ मां के मस्तिष्क में संग्रहित था जो स्वाद को याद रखने में सहायक था, भले ही वह उनकी नाक से प्रवेश कर रहा था। अपनी अर्ध-चेतन अवस्था में, माँ ने मुझे स्वाद के पारंपरिक विचारों को त्यागना सिखाया, और दिखाया इसकी असंख्य संभावनाओं को, ताकि मैं बेहतर समझ सकूं भोजन को चखना, स्वाद लेना और, सबसे महत्वपूर्ण, उसे याद रखना।
आखिरकार, डॉक्टर की भविष्यवाणियों को झुठलाते हुए, माँ पर्याप्त रूप से स्वस्थ हो गईं और उन्होंने एन.जी. ट्यूब से छुटकारा पा लिया। पर अफ़सोस! उनका कहना है कि वह अब किसी भी चीज़ का स्वाद नहीं चख सकती!
*एंडरसन, एडम: “डिस्टिंक्ट रिप्रेजेंटेशन ऑफ बेसिक टेस्ट क्वालिटीज इन द ह्यूमन गस्टोटैरी कॉर्टेक्स”, स्टीफन डी’एंजेलो में। “द स्वीट स्पॉट: रिसर्च लोकेट्स टेस्ट सेंटर इन ब्रेन”
https://news.cornell.edu/stories/2019/03/sweet-spot-research-locates-taste-center-brain