अंग्रेज़ी से अनुवाद : गीत चतुर्वेदी
1960 के दशक में गोवा के गाँव प्रकृति के क़रीब होते थे, जो अपने समुदायों को आपसी निर्भरता का पाठ पढ़ाते थे। घर, जीवनशैली, भोजन का उत्पादन और उपभोग- सबमें यह समझ झलकती थी। आज की तेज़ रफ़्तार जीवनशैली में यह सब कठिन लग सकता है, लेकिन जलवायु परिवर्तन और उसके बढ़ते दुष्प्रभावों को देखते हुए, इस संतुलित जीवन-शैली में गहरी सीख छिपी है।
गाँव का रोज़मर्रा का जीवन हाशियों पर दर्ज उन नोट्स से संचालित होता था, जिनमें अकाल, सूखा, महामारी और बाढ़ की यादें सँजोई जाती थीं। मृत्यु और निर्धनता, संपन्न लोगों के लिए भी, जीवन का स्थायी हिस्सा थे। यदि धान की फसल एक-दो मौसम ख़राब हो जाती, तो पूरा संतुलन बिगड़ जाता। यदि दूध देने वाला कोई पशु मर जाता, तो घर में दूध का अभाव हो जाता। पेड़ों की देखभाल ज़रूरी थी, नदियों और तालाबों को गहरा बनाए रखना आवश्यक था, और हर साल बाँधों को मज़बूत करना पड़ता था। ज़मीन को रहने लायक़ बनाने के लिए उसमें उग आई जंगली घास को उखाड़ना पड़ता था।
बड़े घरों के संचालन पर मौसम का विशेष प्रभाव पड़ता था। मई का महीना आते ही घर, ख़ुद को भली-भाँति सँभालने और खाने-पीने की तैयारी करने में जुट जाता था। छत पर लगे लकड़ी के ढाँचे की मरम्मत होती थी; ज़रूरत पड़ने पर बीम और तख़्ते बदले जाते थे; टाइलों पर से सूखी काई साफ़ की जाती थी; और जहाँ बारिश की फुहारें सीधी पड़ती थीं, वहाँ कमज़ोर हिस्सों पर ‘मोल्ले’ या नारियल की बुनी हुई पत्तियाँ लगाई जाती थीं। घर के अंदर, बाँस के कोठार की गहराइयों से, जहाँ कीड़े-मकोड़ों का बसेरा होता था, जूट की बोरियाँ निकाली जाती थीं ताकि धान के बीज तैयार किए जा सकें। धान के बीज ताम्बे के एक बड़े कलश में अंकुरित किए जाते थे। धान के खेतों को जोतना, सावधानी से खाद डालना और नई मेड़ें बनाना ज़रूरी था।
धान की खेती से जुड़ी पुरानी कहावतें इस काम की अहमियत और समुदाय के आपसी जुड़ाव को दर्शाती थीं – आमी तुमी एकम, शितां केली लोकम (हम सब एक थे, लेकिन धान की कमी ने हमें अलग-अलग कर दिया)। खेतों की भौगोलिक स्थिति इस सहयोग को कई मायनों में समझा देती है। खेत खुली ज़मीन के ऐसे हिस्से होते थे, जहाँ पेड़ और दूसरी वनस्पतियों को जड़ें जमाने की इजाज़त नहीं थी। धान के खेतों में पानी को हमेशा गतिमान बनाए रखने के लिए एक ख़ास तकनीक का इस्तेमाल किया जाता था, क्योंकि पानी का प्रवाह ज़रूरी था। धान को स्थिर, लेकिन हवा-मिश्रित पानी की ज़रूरत होती थी। जड़ों को ऑक्सीजन, जल-निकासी या एक खेत से दूसरे खेत में पानी के प्रवाह की व्यवस्था से मिलती थी, भले ही खेत का मालिक कोई भी हो। इसके लिए छोटे-छोटे जलद्वार और नालियाँ बनाई जाती थीं। कुछ जगहों पर इस काम के लिए मछली के अण्डों का भी इस्तेमाल किया जाता था।
अंकुरित पौधों को पहले एक ‘बांधी’ में बेतरतीब ढंग से छींट दिया जाता था, ताकि जब वे मज़बूत और सख़्त हो जाएँ, तो उन्हें पूरे खेत में क़रीने से क़तारों में रोपा जा सके। धान का उत्पादन मेहनत का काम था और इसमें टीमवर्क को महत्व दिया जाता था। मेरी माँ, माए, हमारे खेत में अन्य महिलाओं के साथ रोपाई करती थीं और हर दिन छह घण्टे (दो शिफ्ट में), टखनों तक पानी में काम करने के बाद, थकी-माँदी घर लौटती थीं। कभी-कभी टीम को, अपने पैरों के पास, पानी में लहराते करैत या रसेल वाइपर के साथ भी काम करना पड़ता था। माए बड़े ध्यान से हिसाब रखती थीं, जिसमें हर पैसे-नए पैसे का लेन-देन दर्ज होता था।
हर फसल के दौरान साझेदारी का चलन था। महिला मज़दूर और बँटाईदार, रोपाई-कटाई के काम में लगते थे। बैलों को हाँकने और मड़ाई के लिए एक-दो पुरुषों को रखा जाता था। हर अक्टूबर में एक संभावित टीम की सूची बनाई जाती थी ताकि धान की पकती हुई बालियों की कटाई समय पर पूरी हो सके। इसमें बालियों की कटाई, मड़ाई (हाथों और बैलों से) और भूसे को अलग करने के लिए पछोरने का काम शामिल होता था। यह काम देर रात तक चलता था, और इस दौरान टीम को घर से भोजन की आपूर्ति करनी पड़ती थी- कांजी, दोपहर का खाना और शाम की चाय।
फसल के जश्न के लिए एक विशेष व्यंजन तैयार किया जाता था, जिसे ‘अटवोल’ कहा जाता था, और इसे मज़दूरों को, बड़े टुकड़ों में भरपूर मात्रा में परोसा जाता था। अटवोल चावल, दाल, गुड़, कसे हुए नारियल, हल्दी के पत्ते और इलायची से बनाया जाता था। भिगोए हुए चावल और दाल को अन्य सामग्रियों के साथ खुली आग पर पकाया जाता था, जब तक कि वह गाढ़ा न हो जाए। फिर उसे एक समतल तख़्ते पर फैलाकर टुकड़ों में काटा जाता था और परोसा जाता था। यह सचमुच एक दावत होती थी, क्योंकि उसमें खाने की कोई सीमा न होती। घर में चहल-पहल और हलचल का माहौल रहता था। घर के कमरों को ख़ाली कर दिया जाता था ताकि चावल के दानों को हवा में सुखाया जा सके और उन्हें पलटने के लिए बार-बार उन पर से गुज़रा जा सके। यह ‘चड्डो’ मेरी बहन और मेरी ज़िम्मेदारी थी। मज़दूरों को भुगतान नकद और अन्य वस्तुओं के रूप में किया जाता था। घास को घर लाने और दूध देने वाले पशुओं के लिए पुआल बनाने के लिए भी वही टीम रखी जाती थी। इस बार नारियल के दूध के साथ पकाया गया चावल का गाढ़ा दलिया यानी घोड़शेम, कटोरों में परोसा जाता था।
Art – Savia Viegas
यह व्यवस्था पीढ़ियों से चली आ रही थी, लेकिन तब कुछ हद तक टूटने लगी, जब पश्चिम एशिया में भारतीय मज़दूरों की माँग बढ़ गई। अधेड़ उम्र के मज़दूर, छोटे किसान और मछुआरे पासपोर्ट बनवाकर घरेलू काम, निर्माण-कार्य और दूसरी नौकरियों के लिए बाहर जाने लगे। युवा पीढ़ी ने भी हुनर सीखकर और सोच-समझकर अरब देशों की तरफ रुख़ किया। इससे स्थानीय लोगों की धान पर निर्भरता बदल गई। इस कमी को पूरा करने के लिए अंदरूनी इलाक़ों से मज़दूर आने लगे। इन टीमों में ईसाई, गौड़ा और हिंदू मज़दूर होते थे, जो रोपाई और कटाई के वक़्त आते थे। घर में तब 15-20 प्रवासी मज़दूरों को भी जगह मिल जाती थी। सब एक ही बड़े कमरे में रहते और खाना बनाते थे। रसोई भी साझा होती थी। नहाने और शौच के लिए अस्थायी शेड बनाए जाते थे। वे दिन-भर की मेहनत के बाद घर लौटते और पीसने, धोने, खाना बनाने जैसे दीगर काम करते हुए आपस में बातें करते। दूर-दराज़ से आए इन मज़दूरों की कहानियाँ सुनना मुझे बेहद पसंद था। मेरा मानना है कि उनके लहजों ने, उनकी आवाज़ों और कहानियों ने मुझे एक लेखक के रूप में आकार देने में भूमिका निभाई।
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1967-68 के बरस की ख़राब फसल के दौरान, सालसेट के ‘तलाठी’, चावल उगाने वाले परिवारों के घर-घर जाकर अनाज सरेंडर करने की गुज़ारिश कर रहे थे। बुज़ुर्गों की सलाह पर माए ने उन्हें बताया कि हमारा चावल-उत्पादन कम हुआ है। इसके बाद, फ़ौरन बचा हुआ अनाज जूट की बोरियों में भरा गया और एक समझदार मज़दूर ने उसे सीढ़ी के ज़रिए ऊपर पहुँचा दिया। वह मज़दूर, जो थोड़े समय के लिए हमारे साथ रह रहा था, चावल की अपनी बोरियाँ भी ऊपर ले गया था। चूहेदानी लगा दी गई थी। एक हफ़्ते बाद, हमने एक पूरी रात जागते हुए बिताई क्योंकि छत से दयनीय चीखें आ रही थीं। हमें लगा, कोई भूत है, लेकिन वह तो एक फँसी हुई सिवेट बिल्ली निकली।
1960 के दशक के अंत में एक दिन माए की आँखों में आँसू आ गए, जब उन्होंने पोल्सन मक्खन के आखिरी टिन को खोला। इस पसंदीदा मक्खन की कमी से एक नई तरह की मुश्किल खड़ी हो गई थी, और तब तक अमूल के उत्पाद गाँवों में नहीं पहुँचे थे। इसकी जगह कुछ समय के लिए एक ‘वैद्य’ ने ले ली, जो पत्तों और जड़ी-बूटियों की दवाओं के साथ मिट्टी के एक बड़े मटके में घर का बना ‘तूप-लोनी’ लाता था और उसे माप कर बेचता था। बिना नमक वाले इस मक्खन का स्वाद, पोल्सन के मक्खन से बिलकुल अलग था। नाश्ते और चाय के वक़्त मक्खन की जगह शहद और शीरा (गन्ने से गुड़ बनाने की प्रक्रिया का उप-उत्पाद) का इस्तेमाल किया जाता था। सालसेट में बड़े डेयरी फार्म नहीं थे। कुछ छोटे किसान ही दूध देने वाली एक-दो गाय रखते थे। ज़मींदार परिवार गायों की देखभाल के लिए चरवाहों को रखते थे और अतिरिक्त दूध बेचकर उनका वेतन चुकाते थे। चावल प्रचुर मात्रा में था, इसलिए चरवाहा, परिवार के साथ ही खाना खाता था। मेरी शुरुआती यादों में संतान नाम वाला एक गौड़ा/कुनबी व्यक्ति भी है। वह चूहेदानी में पकड़े गए चूहों को अपना खाना बना लेता था। वह चूहे को पूँछ से पकड़कर तब तक पटकता, जब तक वह बेहोश न हो जाए। फिर उसे लकड़ी से बाँधकर आग में डालता और भुने हुए चूहे को नमक, नारियल के तेल और मिर्च के टुकड़ों से सजाकर खा लेता।
गंगाराम, जो उसकी जगह आया था, आंध्र का रहने वाला था और तेलुगु के साथ टूटी-फूटी हिंदी बोलता था। माए की सालसेटी कोंकणी, पुर्तगाली और स्थानीय लहजे वाली अंग्रेज़ी में की गई बातचीत का पटाक्षेप अक्सर ‘लॉस्ट इन ट्रांसलेशन’ वाली स्थिति मे जाकर होता था। इस नाते, इशारों की भाषा ही हमारे बीच गंभीर संवाद का माध्यम बन गई थी। रोज़-रोज़ हमारे द्वारा दिए गए चावल, करी और सब्ज़ियों से ऊबकर, एक दिन गंगाराम ने माए के सामने अण्डे खाने की इच्छा जताने की कोशिश की। उसने ज़ोर-ज़ोर से हाथ हिलाए, हाथों का कटोरा बनाकर मुर्ग़ी की नक़ल की।
‘कोंबडी-कोंबडी-मुर्गी-मुर्गी, माए!’ उसने कहा।
माए ने ऐसे सिर हिलाया, जैसे समझ न पाई हों।
बाद में, मेरी बहन और मैंने एक स्वर में पूछा, ‘माए, तुम्हें समझ कैसे नहीं आया?’
माए बोलीं, ‘मैं समझ गई थी, लेकिन हमारी मुर्ग़ी जो क़ीमती अण्डे देती है, उसे गंगाराम को खिलाने में मेरी जान न निकल जाएगी!’
हम कभी मुर्ग़ियों को नहीं काटते थे, जैसे कि ख़ास मौक़ों पर माँस के लिए सूअर काटते थे। अण्डे ही हमारे पोषण का मुख्य स्रोत थे। एक किलो बीफ़ और एक किलो हड्डियाँ पूरे हफ़्ते के लिए सूप और माँस के ख़ास व्यंजनों के लिए काफ़ी होती थीं। लेकिन असली प्रोटीन तो मछली से मिलता था, जो करी में भी डाली जाती थी और तली हुई साइड डिश के रूप में भी परोसी जाती थी।
पहली बारिश की तेज़ बौछारों के बीच मेंढक, जिन्हें आमतौर पर ‘कूदने वाला चिकन’ कहा जाता था, ज़ोरदार प्रजनन-पुकारों से माहौल भर देते थे। अब मेंढकों का शिकार प्रतिबंधित है, लेकिन तब यह एक मौसमी काम था, जिससे खाने की मेज पर प्रोटीन सुनिश्चित किया जाता था। जानकार शिकारी नरम हुई ज़मीन पर भाले से वार करके वहाँ छिपे ‘ज़मीनी कछुओं’ को खोज निकालते थे, ताकि चावल और करी के खाने को और स्वादिष्ट बनाया जा सके।
मोटे-ताज़े सूअर को महीनों के इंतज़ार के बाद ही मारा जाता था- ख़ास मौक़ों पर, जैसे कोई दावत, सगाई, बपतिस्मा या शादी के समय। मेज़ को पूरे ठाट-बाट से सजाया जाता था, और खाने-पीने में किसी चीज़ की कमी नहीं होती थी- पेय, माँस और मिठाई, सब कुछ भरपूर होता था। बड़े जानवरों के मामले में, कसाई हफ़्ते में एक बार गाँव की वधशाला यानी ‘तिंटो’ में जानवर लाता था। यह हफ़्ते में एक बार ही होता था, और कभी-कभी एक किलो बीफ घर की रसोई में पहुँच जाता था, जिससे ज़रूरी नाइट्रोजन की कमी पूरी हो जाती थी।
आँगन में मुर्ग़ियों और बतखों के नाम रखे गए थे। वे दो काम करती थीं- आँगन की सफ़ाई करना और अण्डे देना। मुर्ग़ियां दीमक खाती थीं। वहाँ दीमकों की मौजूदगी इस बात की निशानी थी कि ये ज़मीन कभी समुद्र के नीचे रही होगी, और आज के समय में ये एक बड़ी समस्या बन गई थी। बतख शोर मचाकर साँपों पर हमला करती थीं और पीछे के अहाते में रहने वाले कोबरा को दूर रखने का बड़ा ज़रिया होती थीं। ‘शमाई’ अक्सर तब तीन दिन लगातार ‘मसाद’ बनाती थी, जब हमें खाँसी हो जाती थी। नीले और सफ़ेद रंग के मिट्टी के कटोरे को दीवार पर बनी काँच की अलमारी से निकाला जाता था। दो अण्डों की ज़र्दी को ध्यान से अलग किया जाता था और उसमें तीन चम्मच चीनी मिलाई जाती थी। ज़र्दी और चीनी को इतनी ज़ोर से फेंटा जाता था कि उसका रंग सरसों से सफ़ेद में बदल जाता था। फिर इसे व्हिस्की या ब्रांडी से ‘फ्लेम्बे’ किया जाता था। एग फ्लिप इस क़दर ख़ूबसूरती और सलीके से बनाया-परोसा जाता था कि खाने वाला ख़ुद को बेहद ख़ास और सम्मानित महसूस करने लगता था।
हमारी पाँच गायों के झुंड में मिमोसा मेरी सबसे प्यारी थी। उसके जन्म के समय मैं कुछ ही महीनों की थी, और हम साथ खेलते हुए बड़े हुए थे। मिमोसा गहरे भूरे रंग की थी, उसके माथे पर एक बड़ा-सा चाँद था और उसकी आंखें हिरनी जैसी सुंदर और मासूम थीं। हम सचमुच साथ बड़े हुए थे! एक बार मिमोसा भटकते हुए पास के एक गाँव पहुँच गई थी। उस रात माए, निकु (जो गंगाराम की जगह आया था) और एक टॉर्च के साथ मिमोसा को घर वापस ले आईं। वहाँ सांड मिमोसा का पीछा करने लगे थे। मैं पूरे समय रोती रही और प्रार्थना करती रही कि वह सही-सलामत वापस आ जाए। छोटी और कोमल मिमोसा का शरीर धीरे-धीरे फूलने लगा। जब वह बहुत भारी हो गई, तो माए ने उसे घर पर ही रखा। तब मैं शायद आठ या नौ साल की रही होऊँगी। एक शाम, मैंने उसे आँगन में देखा- उसके पैर अकड़ गए थे और उसकी आँखें दर्द से उलट रही थीं। मैं उसे सांत्वना देते हुए प्रार्थना करने लगी। माए घर आईं और गर्म पानी से सेंक देते हुए उसकी मदद करने लगीं। घण्टों की मेहनत के बाद उसने एक नर बछड़े को जन्म दिया। हमने उसका नाम ‘बुद्धू’ रखा- वह शब्द जो गंगाराम हमेशा जानवरों के लिए इस्तेमाल करता था, ख़ासकर तब, जब वह उन्हें खोलकर चराने के लिए ले जाता था।
‘होई, होई! ए बुद्धू, संभल जा!’
उस दिन और उसके अगले दिन हमने ‘पोस’ बनाया- हल्का और ख़ुशबूदार, पहली बार दूध देने के बाद बनने वाली सबसे स्वादिष्ट मिठाई। यह गाढ़ा दूध कोलोस्ट्रम से भरा होता था, जिसमें पोषण और एंटीबॉडीज़ भरपूर होते थे। इसे गुड़, नारियल के दूध, हल्दी और इलायची के साथ हल्का मीठा करके पकाया जाता था और फिर भाप में पकाया जाता था। यह एक ख़ास और दुर्लभ मिठाई मानी जाती थी।
कुछ साल बाद, जब मैं गाँव के रास्तों पर पैदल ही भटक रही थी- खेत के बाद खेत, अक्टूबर की चिलचिलाती धूप में- गंगाराम की वह अनहोनी पुकार मेरे कानों में गूँज रही थी। बुद्धू गुम हो गया था। हमने उसे गांव की सीमा के आख़िरी खेत में पड़ा हुआ पाया- वह फूला हुआ था, बेरहमी से पीटा गया था, क्योंकि वह भटककर किसी और के धान के खेत में पहुँच गया था!
मानसून एक नई दुनिया रच देता था। आँगन में भिंडी, लौकी, राख लौकी, तोरई, कांटेदार तोरई, कद्दू, बैंगन, लंबी फली और टिंडे के बीज अंकुरित हो जाते थे। जंगली सब्ज़ियाँ, जड़ी-बूटियाँ और फल अपने आप घास, बगीचों और जंगल के किनारों पर उग आते थे। खाने-पीने का एक तय क्रम था, जिससे भंडार हमेशा भरा रहता था। मेरे पिता की पीढ़ी के लिए रात का खाना अक्सर रागी की खिचड़ी ही होता था- कभी नारियल के दूध के साथ, कभी बिना उसके- और ऊपर से हल्की चीनी या शीरा डाल दिया जाता था। आज गोअन खाने में जो भव्य व्यंजन दिखते हैं, वे उस दौर में बस एक ख़्वाब जैसे थे। रोज़मर्रा का जीवन सादा और मितव्ययी थी। खाने से भरी हुई डाइनिंग टेबल सिर्फ़ किसी दावत, बपतिस्मा या शादी के मौके़ पर ही देखी जाती थी।
Art – Savia Viegas
गांवों में ग़रीबों को खाना खिलाने की एक परंपरा थी। बुधवार को ‘मगटोले’ का दिन होता था, जब भिखारी चावल, मिर्च, नारियल या पैसे माँगने आते थे। किसी भी समारोह में एक भिखारी के खाने का इंतज़ाम करना ज़रूरी होता था। उनमें से कई के सिर मुंडे़ हुए होते थे।
जब बारिश के बादल अपना पूरा गु़स्सा बरसाते, तो वनस्पति जीवन से भर उठती—वह जीवन जो अब तक बीज, कंद या सूखे बीजाणु के रूप में पड़ा होता। जंगली जड़ी-बूटियाँ, सब्ज़ियाँ और कुकुरमुत्ते अपने-अपने ठिकानों पर उग आते थे। कुकुरमुत्ते इकट्ठा करना समझदारी भरा काम था, जिससे एक मौसमी व्यंजन तैयार होता था।
मानसून की इस समृद्धि की झलक पश्चिमी भारत के गणपति पंडालों में सजाई गई ‘माटोली’ (पत्तों और फलों की सजावट) में देखी जा सकती है। कई सारस्वत परिवार इस मौसम की सब्ज़ियों से बने ख़ास व्यंजन तैयार करते थे। हाल ही में चेतन आचार्य के नए घर के गृहप्रवेश समारोह में परिवार ने खाने योग्य जंगली पौधों से बने अनूठे व्यंजनों का भोग तैयार किया था, जिसका वीडियो वायरल हो गया था। कुछ व्यंजन थेरो, पिवुची भाजी, जंगली केले के अंकुर, केले के पौधे के गूदे, गोटी जेरे और लुत के थे। इसके अलावा, बाँस के अंकुर, तल्किलो, सहजन के पत्ते, फूल और सहजन की फलियाँ भी बनाई गई थीं। हॉग प्लम (अंबाड़ा) मानसून की एक और पसंदीदा चीज़ थी, जो कैथोलिक और हिंदू परिवारों में बराबर पसंद की जाती थी।
करीब 105 किलोमीटर की अबाध भारतीय महासागर की तटरेखा, बलखाती नदियाँ और कृत्रिम जलाशय, साथ ही समृद्ध जलस्तर के कारण साल-भर मछली से मिलने वाले प्रोटीन की उपलब्धता यहाँ सुनिश्चित हो जाती थी। समुद्र, नदियाँ, खारे पानी के इलाक़े और मीठे पानी के तालाब, अलग-अलग पारिस्थितिकी तंत्र को सहारा देते थे और भारत के पश्चिमी तट के मध्य भाग का अहम हिस्सा थे। मछली के बिना जीवन ऐसा था, जोकि गोवा के अमीर और ग़रीब दोनों के लिए बेचैनी का सबब बन जाता था। पाए (मेरे पिता) मानसून के दौरान सूखी और नमकीन मछली से हमेशा ‘किसमुर’ बनाते थे, इस ज़रूरी समुद्री प्रोटीन के बिना भूरे चावल को निगलना उनके लिए नामुमकिन था।
मछली पकड़ने के लिए अलग-अलग उपकरण और तकनीकें साल भर इस खाद्य स्रोत की उपलब्धता को बनाए रखती थीं। सबसे ख़ास थे खारवी (खारवी समुदाय, जो छोटी वोड्डम यानी नाव चलाते थे और रामपोन नाम का जाल फेंकते थे)। पर्स सीनर और यंत्रीकृत मछलीमार नावों के आने से पहले, खारवी ही यहाँ के लोगों की समुद्री खानपान की ज़रूरतों को पूरा करते थे। मछुआरे अपनी नावें समुद्र में ले जाते, मछली पकड़कर लौटते और उसे आपस में बाँटते। ये मछलियाँ घर-घर मौजूद विक्रेताओं, गाँव के बाज़ार और मुख्य शहर के बाज़ार तक पहुँच जाती थीं। मछली पकड़ने के इन पारंपरिक तरीक़ों के जरिए मछुआरा समुदाय इस खाद्य शृंखला को चलाता था। लेकिन 1980 के दशक में पर्स सीनर और यंत्रीकृत मछलीमार नौकाओं के आगमन ने इस व्यवस्था को ख़ासा प्रभावित किया।
घर के चारों ओर, खेतों के किनारे बनी मेड़ों पर या नारियल के बागानों में सावधानी से सींचे-पोसे गए नारियल के पेड़ गोअन भोजन, मिठाइयों और तेल के लिए एक आवश्यक तत्व यानी खोपरा प्रदान करते थे। नारियल के पेड़ों की देखभाल और पालन-पोषण जीवन के उस पाठ का हिस्सा था, जो सीखना अनिवार्य था। प्रत्येक पेड़ के बीच कुछ मीटर की दूरी बनाए रखना रोपाई के समय ज़रूरी था, और गड्ढे को रोपण से पहले धूम्रित करना आवश्यक होता था। पेड़ की छत्र-छाया को मज़बूत, स्वस्थ और उत्पादक बनाए रखने के लिए नमक, राख और मल्च का उपयोग अनिवार्य था। इन्हें घुन से भी बचाना पड़ता था।
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चावल और नारियल का अतिरिक्त भंडार रहना ज़रूरी था, क्योंकि इससे घर का भरण-पोषण होता था, मज़दूरी और कुछ वस्तुओं का भुगतान किया जाता था, और तिमाही तुड़ाई के समय नारियल व्यापारी से अच्छी क़ीमत मिलने पर नकदी-प्रवाह भी होता था। कई कारीगर, बढ़ई, लकड़ी तराशने वाले, राजमिस्त्री और दिहाड़ी मज़दूर आंशिक भुगतान के रूप में चावल और नारियल ले लेते थे, जिससे ग्रामीण गोवा के अर्ध-सामंती घरेलू ढाँचे को बिना अधिक नकदी-प्रवाह के बेहतर रहने की व्यवस्था तैयार करने में मदद मिलती थी।
एक कृषक परिवार में ज़्यादा नकदी आमतौर पर नहीं होती थी। इसलिए जब माए ने मुझे बोर्डिंग हाउस में दाख़िला दिलाया, तो उन्होंने आयरिश ननों को हर महीने कुछ किलो चावल बोर्ड फीस के हिस्से के रूप में स्वीकार करने के लिए मना लिया था।
फेनी, नारियल के रस और काजू के जूस से बनाई जाती है। नारियल की फेनी साल-भर बनती थी, जबकि काजू की उराक और फेनी गर्मियों की सौगात थी। दोनों प्रक्रियाएँ एक जैसी थीं। नारियल के पेड़ों से रस दिन में दो बार इकट्ठा किया जाता था और इसे एक हफ़्ते तक ‘फरमेंट’ किया जाता था, फिर इसे तीन बार डिस्टिल किया जाता था। मिट्टी का एक बड़ा घड़ा क्षैतिज रूप में रखा जाता था, उसे गर्म किया जाता था और संघनित तरल को पाइप के ज़रिए एक घड़े में डाला जाता था। अंत में एक अर्क प्राप्त होता था- फेनी। जबकि काजू को कुचला जाता था, और उससे निकले जूस को गर्म करने पर उराक और फेनी तैयार होती थी।
जब समय अच्छा था, हमारे पास लगभग 500 नारियल के पेड़ थे, जो बेनाउलिम उपजाति के थे, जोकि अपनी उत्कृष्ट उपज के लिए प्रसिद्ध थे, लेकिन इनकी ऊँचाई बहुत अधिक होती थी, जिससे फल तोड़ना एक मुश्किल काम था। नारियल तोड़ने में पूरा दिन लग जाता था, और माए इस पूरे काम की निगरानी करती थीं, नारियल के हर गुच्छे को गिनती थीं, ग़ायब नारियलों की भरपाई बँटाईदारों से करवाती थीं। नारियल तोड़ने वाली टीम का एक हिस्सा भुगतान के रूप में नारियल ले लेता था, वैसे ही जैसे वे औरतें, जो सिर पर रखकर फसल को घर तक पहुँचाती थीं।
हमारी तोड़ाई टीम का नेता हरिशचंद्र नाम का एक हिंदू था। वह पतला-दुबला और सरकंडे की तरह लचीला था। जब उसकी टीम के लोग डरकर पीछे हट जाते, तो वह ख़ुद काम सँभाल लेता था। हमारे ‘गांवण’ बग़ीचे में तीन पेड़ बहुत ऊँचे हो गए थे, जिन पर चढ़ने से बाक़ी लोग काँपते थे, लेकिन हरिशचंद्र हर मौसम में उन पर चढ़कर नारियल तोड़ लेता था। वह अक्सर डींग मारता था कि वह पेड़ की चोटी से हिंद महासागर की लहरें देख सकता है, जबकि वह जगह समुद्र से एक किलोमीटर से भी अधिक दूर थी।
नारियल तोड़ना और ताड़ी निकालना मानसून के मौसम में ख़तरनाक काम था, और चढ़ने वाले लोग उम्र के साथ कमज़ोर हो जाते थे। पचास की उम्र तक पहुँचते-पहुँचते शराब और बीमारियों के कारण उनकी हड्डियाँ जकड़ चुकी होतीं। हरिशचंद्र की मौत नारियल के एक पेड़ से गिरकर हुई थी, जैसे कि रोजा (हमारे माली का पति) की। सीधी ऊँचाई से गिरना, तोड़ाई करने वाले कई लोगों की नियति बन गया था। टूटी पसलियाँ, रीढ़ की बिखरी हड्डियाँ, फटे कूल्हे, चकनाचूर जबड़े- इन चोटों की कोई गिनती नहीं थी। लेकिन एक बार जो नारियल के पेड़ पर चढ़ा, वह बार-बार उस पर चढ़ता था। हाल ही में, अस्सी साल के एक बुजुर्ग नारियल के पेड़ पर चढ़ गए, यह कहते हुए कि- ‘बस, पुराने दिनों की याद में!’