लंका में खान-पान
Volume 4 | Issue 9 [January 2025]

लंका में खान-पान
अजय कमलाकरन

Volume 4 | Issue 9 [January 2024]

अंग्रेज़ी से अनुवाद : गीत चतुर्वेदी

जब मैंने फ़रवरी 2003 में त्रिची से कोलंबो जाने के लिए श्रीलंकन एयरलाइन्स की उड़ान पकड़ी, तो मुझे इस बात का ज़रा भी अंदाज़ा नहीं था कि वहाँ मुझे किस तरह का भोजन मिलेगा। मैंने यही सोचा था कि द्वीपवासियों का आहार तमिलनाडु के खाने से मिलता-जुलता होगा। आज की तरह इंटरनेट से जानकारी हासिल करने की सुविधा तब नहीं थी, इसलिए मुंबई में रहने वाले किसी व्यक्ति के लिए इस द्वीप के बारे में अधिक जानना मुश्किल था—सिवाय इसके कि वहाँ की क्रिकेट टीम शानदार थी और वहाँ के लोगों के बोलने का लहजा मोहक था जोकि उनके खिलाड़ियों और कमेंटेटरों के कारण मशहूर हो गया था; और हाँ, वहाँ गृहयुद्ध भी चल रहा था।

जब हम भंडारनायके अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे से देश के उत्तर-पश्चिमी प्रांत में स्थित पुत्तलम की ओर बढ़े, तो सहसा मुझे महसूस हुआ, जैसे मैं केरल के किसी हिस्से में आ गया हूँ—अपने पूर्वजों की भूमि में। श्रीलंका पहुँचने के कुछ ही घंटों बाद मुझे वहाँ के भोजन का पहला स्वाद मिला, एक विश्राम-गृह में, जोकि श्रीलंकाई बौद्ध तीर्थयात्रियों के लिए था। मेरे मेज़बान और घनिष्ठ मित्र प्रसाद ने वहाँ के प्रबंधन को यह नहीं बताया कि उनके साथ एक विदेशी नागरिक भी है; उन्होंने मुझे भोजन कक्ष में अंग्रेज़ी बोलने से मना कर दिया। थोड़ी ही देर में, पहली बार मेरे सामने श्रीलंकाई ‘थाली’ आई, जिसे वहाँ ‘राइस एंड करी सेट’ कहा जाता है। प्रसाद ने मुझसे कहा कि मैं पहले उसे खाना मिलाते हुए देखूँ: थोड़ा-सा परिप्पु (दाल करी), पोल संभोल (ताज़ा कसा हुआ नारियल, छोटी प्याज़, मिर्च पाउडर, नींबू रस और नमक), चिकन करी, मूली की पकाई गई पत्तियाँ और चौकोर कटे पापड़, जो नारियल तेल में तले गए थे। यह केरल की उस पाक-कला से बहुत अलग नहीं था, जिससे मैं परिचित था। अपनी ‘विदेशी’ पहचान छुपाने के लिए मुझे पहले पापड़ का एक टुकड़ा तोड़ना था, फिर हर चीज़ का थोड़ा-थोड़ा हिस्सा लेना था और उसे चावल में मिलाकर एक साथ खाना था।

पुत्तलम के उस विश्राम-गृह में मिर्चों का उपयोग ख़ूब जमकर किया गया था। श्रीलंकाई भोजन में चावल के साथ दही खाने की परंपरा नहीं थी, जो मुझे कुछ अजीब लगा। भोजन का आनंद पाने के बावजूद मैं उसके तीखेपन से जूझ रहा था, मुझे अपनी ज़बान और स्वाद को शांत करने के लिए गुड़ और पानी का सहारा लेना पड़ा। मेरे पहले डिनर ने ही मुझे श्रीलंकाई भोजन का प्रशंसक बना दिया था, लेकिन यह तो महज़ एक झलक थी स्वाद के उस संसार की, जो इस देश की मेरी पहली यात्रा में मेरा इंतज़ार कर रहा था।

अगली सुबह मैंने इडियप्पा (स्ट्रिंग हॉपर) खाए, जिन्हें उसी परिप्पु (दाल करी) के साथ परोसा गया था, जो मैंने पिछली रात खाया था, लेकिन इस बार उसके साथ कट्टा संभोल भी था, जो पोल संभोल से इस मायने में अलग था कि इसमें मालदीव मछली का उपयोग किया गया था। मुझे कभी भी मलयाली शैली के इडियप्पा, जिसे हम नूल-पुट्टु या इडियप्पम कहते हैं, विशेष रूप से पसंद नहीं आए थे। मेरे घर में इसे आमतौर पर कडला (काला चना) करी और नारियल की चटनी के साथ खाया जाता था। ऐसे में श्रीलंकाई शैली का यह रूप मेरे लिए एक सुखद परिवर्तन की तरह था। श्रीलंकाई परिप्पु, जो मसूर दाल से बनता है और नारियल के दूध से उसके स्वाद को सँवारा जाता है, मेरी राय में स्ट्रिंग हॉपर के साथ, कडला करी से कहीं अधिक स्वादिष्ट मेल बनाता है- हालाँकि उम्र के साथ मैंने कडला करी को पसंद करना भी सीख लिया है।

श्रीलंकाई राइस एंड करी के विभिन्न रूपों में एक ऐसा है जिसमें मछली करी होती है, जिसे काली मिर्च की ग्रेवी और नारियल के दूध में पकाया जाता है, और एक अन्य रूप है जोकि झींगा करी के साथ आता है। इस भोजन में लाल माँस का अधिक उपयोग नहीं होता। जब प्रसाद और मैं अनुराधापुरा की ओर बढ़ रहे थे, तो मुझे पहली बार आपा या हॉपर चखने का मौक़ा मिला। श्रीलंकाई आपा हमारे केरल के आपम की तुलना में कहीं अधिक पतला और कुरकुरा होता है, और इसका कारण उस विशेष बर्तन में छिपा है जिसमें इसे बनाया जाता है। भारत में, घर पर नाश्ते के रूप में आपम को बड़े चाव से खाया जाता है, खासकर आलू स्टू के साथ, जिसे हम ‘इष्टू’ कहते हैं। यह व्यंजन श्रीलंका में इस रूप में मौजूद नहीं है, लेकिन वहाँ नारियल के दूध में पकी हुई एक आलू करी बनाई जाती है, जिसे आला-किरी-होड़ी कहते हैं और जो हल्दी की वजह से पीले रंग की होती है। श्रीलंकाई आपा का स्वाद पहली बार चखते ही, मैंने अंडे वाली क़िस्म खाई और तुरंत ही उसका दीवाना हो गया।

जब हम अनुराधापुरा से दाम्बुला और कैंडी की ओर बढ़े, तो मैंने द्वीप के सबसे लोकप्रिय स्ट्रीट फूड में से एक- कोट्टू रोटी- का स्वाद लिया। यह कटी हुई रोटी होती है, जिसे अंडे, चिकन, सब्ज़ियों, प्याज़ और मिर्च के साथ मिलाकर बनाया जाता है। इसे बनाते समय होने वाली तेज़, लयबद्ध थपथपाहट अपने आप में दिलकश लगती है। माना जाता है कि यह व्यंजन 1960 के दशक में श्रीलंका के पूर्वी भाग में विकसित हुआ और वहीं से केरल पहुँचा, जहाँ इसे कोट्टू परोटा कहा जाता है। मेरी पहली श्रीलंका यात्रा के बाद से कोट्टू भी विकसित हुआ है, और अब इसका एक लोकप्रिय रूप है जोकि चीज़ के साथ भी बनाया जाता है। (कोलंबो के गॉल रोड पर स्थित ‘दे पिलावूस’ नामक रेस्तरां शृंखला में बनने वाला कोट्टू, श्रीलंका में अनेक लोगों का पसंदीदा है।)

मेरी पहली श्रीलंका यात्रा का समापन प्रसाद के नुगेगोड़ा स्थित घर में हुआ, जहाँ मैं तब से लगभग हर साल आता रहा हूँ। यहीं पर मैंने पहली बार, घर का बना पारंपरिक सिंहली भोजन चखा। जब कभी श्रीलंका की अगली यात्रा का विचार बनता है, तो सबसे पहले किरी-भात या नारियल के दूध में पके चावल का स्वाद याद आता है। इसे मैं कट्टा संभोल और काली मिर्च की ग्रेवी में बनी मछली करी के साथ खाना पसंद करता हूँ।

पहली यात्रा के कुछ साल बाद, मैं अपनी माँ को भी श्रीलंका लेता आया। चावल और करी का भोजन करने के बाद उनकी पहली प्रतिक्रिया यह थी कि इसका स्वाद बिल्कुल वैसा था, जैसा उन्होंने अपने बचपन में केरल के पलक्कड़ ज़िले के एक गाँव में खाया था। लेकिन उन्हें यह जानकर उतना ही आश्चर्य हुआ कि यहाँ थायर-शादम या दही-चावल की कोई परंपरा नहीं थी। श्रीलंका में दही खाया जाता है, लेकिन इसे भोजन के साथ नहीं, बल्कि मीठे किथुल पाम (माड़ी ताड़) के सिरप के साथ मिठाई के रूप में परोसा जाता है, ताकि मुँह और पेट को ठंडक मिल सके।

हालाँकि भारत और श्रीलंका में खाने-पीने की आदतों में कई समानताएँ हैं, लेकिन जो लोग दोनों देशों के व्यंजनों के गहरे जानकार हैं, वे इनके बीच के अंतर को आसानी से पहचान सकते हैं। एक मलयाली के रूप में, मैं यह कल्पना नहीं कर सकता कि मेरे दिन की शुरुआत अच्छी दक्षिण भारतीय फिल्टर कॉफ़ी पिए बिना हो जाए, लेकिन श्रीलंका में मैं ख़ुशी-ख़ुशी चाय पीता हूँ, जो आमतौर पर दूध-पाउडर से बनाई जाती है। अब तक श्रीलंका में केवल एक ही जगह ऐसी मिली, जहाँ की चाय हमारे ताज़े, गाढ़े दूध वाली चाय से मिलती-जुलती थी- जाफ़ना में, जहाँ की रसोई-परंपराएँ तमिलनाडु से काफ़ी मेल खाती हैं।

2018 में पहली बार जाफ़ना जाते हुए, मुझे उत्तरी श्रीलंका के तमिल व्यंजनों का स्वाद चखने का मौक़ा मिला। प्रायद्वीप में बोली जाने वाली तमिल का लहजा और ध्वनि अति-विशिष्ट है, लेकिन अजीब बात है कि यह एक तरह से मलयालम जैसी भी लगती है। जब मैं प्रसाद के (अब बड़े हो चुके) बेटे, पवित्रा, के साथ एक छोटे-से रेस्तरां में नाश्ता करने गया था, तो मुझे लगा कि मैंने पूरे आत्मविश्वास के साथ स्ट्रिंग हॉपर और एक स्थानीय शाकाहारी करी का ऑर्डर दे दिया है। मैंने जाफ़ना में बोली जाने वाली तमिल उच्चारण शैली अपनाई थी, जिससे मैं रेस्तरां के कर्मचारियों को यह यक़ीन दिलाने में लगभग कामयाब हो गया था कि मैं स्थानीय हूँ, या कम से कम श्रीलंकाई तमिल प्रवासियों में से एक हूँ—जब तक कि मैंने फ़िल्टर कॉफी माँगने की ‘ग़लती’ नहीं कर दी। यह सुनते ही रेस्तरां के मालिक मुस्कुराते हुए हमारे पास आए और पूछा कि क्या हम भारतीय हैं। पता चला कि वह कई साल चेन्नई में रह चुके थे और वहाँ की फ़िल्टर कॉफी को जाफ़ना में लोकप्रिय बनाने की कोशिश भी कर चुके थे, लेकिन असफल रहे। उनका कहना था कि स्थानीय लोग इंस्टेंट कॉफी से ही संतुष्ट थे, और मेरा अनुरोध तुरंत मेरी ‘पहचान’ उजागर कर गया।

जाफ़ना में, और वह भी ख़ासतौर पर अक्षाथाई में मिलने वाला लंच बुफ़े, दक्षिणी तमिलनाडु के रेस्तरां में दिए जाने वाले ‘मील्स’ से काफ़ी मिलता-जुलता है, लेकिन वहाँ की रसम से लेकर बीन्स पोरियल तक, हर चीज़ का स्वाद मुझे भारत के मुक़ाबले फीका लगा- या फिर शायद श्रीलंकाई खाने ने मेरी स्वाद ग्रंथियों को और तीखे मसालों की आदत डाल दी थी।

श्रीलंका में खाने की आदतों में एक चीज़ ऐसी है, जिसमें पूरे द्वीप में एकरूपता देखी जा सकती है- स्नैक्स। श्रीलंका में चाय के साथ खाए जाने वाले नाश्ते, जिन्हें ‘शॉर्ट ईट्स’ कहा जाता है, के कुछ रूप केरल में भी मिलते हैं। केरल के ईसाई परिवार जो फिश कटलेट्स बनाते हैं, उनका स्वाद काफ़ी हद तक श्रीलंका में मिलने वाले कटलेट्स जैसा होता है, लेकिन श्रीलंका में पुर्तगाली प्रभाव कहीं अधिक गहरा है, जिसकी वजह से वहाँ बेकरी की परंपरा बहुत समृद्ध है। फिश बन और सॉसेज रोल, जो श्रीलंका में सड़क किनारे मौजूद लगभग हर बेकरी में मिल जाते हैं, केरल के पारंपरिक व्यंजनों का हिस्सा नहीं हैं।

हालाँकि, मिठाइयों की बात करें, तो उनके कुछ रूप गोवा और केरल, दोनों में देखने को मिलते हैं। श्रीलंका में बिबिक्कन उतना ही पसंद किया जाता है जितना गोवा में बेबिंका। बिबिक्कन में कसा हुआ नारियल, गुड़ और सूजी डाले जाते हैं, जबकि बेबिंका, जो परतों में बनी होती है, घी और नारियल के दूध से तैयार की जाती है। इसी तरह, सिंहली नववर्ष के दौरान बनाई जाने वाली पारंपरिक मिठाई, कोंडा कवुम या ऑयल केक, केरल की नै-अप्पम से काफ़ी मिलती-जुलती है, बस श्रीलंका में उसमें केले की भरावट नहीं की जाती।

सिंहली बौद्ध, बीफ खाने को परंपरागत रूप से नापसंद करते हैं, जबकि केरल में सभी समुदायों के लोग उससे बने अलग-अलग प्रकार के व्यंजन खाते हैं। हालाँकि, श्रीलंका में एक बेहद स्वादिष्ट और चटपटी ‘ब्लैक पोर्क करी’ मिलती है, जिसे इमली के पेस्ट, करी पाउडर और काली मिर्च के साथ तैयार किया जाता है।

बाईस वर्षों में मैंने, श्रीलंका में खाने के मामले में कई जोखिम उठाए हैं, या ऐसा कहें कि ग़लतियाँ की हैं। मेरा पहला और सबसे अच्छा दोस्त प्रसाद हमेशा मुझे एक ख़ास घटना की याद दिलाता है- पोल (नारियल) रोटी के साथ किया गया मेरा प्रयोग! 2005 में, हम प्राचीन शहर पोलोनारुवा के पास एक छोटे-से रेस्तरां में रुके। वहाँ हमें रोटी के साथ ‘लूनू मिरिस’ नामक चटनी दी गई, जो पिसी हुई मिर्च और नमक से बनी थी। उसे खाने से पहले प्रसाद ने मुझे बाक़ायदा चेतावनी दी थी, लेकिन उसे नज़रअंदाज़ करते हुए, मैंने इस चटनी को दो रोटियों के बीच रखकर एक ‘सैंडविच’ बनाया और उसे जल्दी-जल्दी खाने लगा। नतीजा यह कि कुछ पलों बाद ही मुझे ऐसा लगा, जैसे मैं किसी पौराणिक ड्रैगन की तरह आग उगल रहा हूँ। मुझे तीखा खाने की आदत थी, लेकिन यह अनुभव कुछ और ही था। तीन गिलास पानी पीने के बाद भी जलन कम नहीं हुई। फिर मैंने क्रीम सोडा पिया, जिससे थोड़ी राहत तो मिली, लेकिन जलन पूरी तरह नहीं गई। इसके बाद और पानी पिया और फिर चीनी वाली हल्की गर्म काली चाय भी। आधे घंटे बाद भी ‘लूनू मिरिस’ की जलन बनी रही। इस घटना से मुझे एक गहरा सबक़ मिला कि कभी किसी स्थानीय व्यक्ति की सलाह को हल्के में नहीं लेना चाहिए।

इस खूबसूरत द्वीप पर पहली बार क़दम रखने के बाईस साल बाद, अब श्रीलंकाई खाना मेरे आहार का एक अहम हिस्सा बन चुका है। जब भी मैं कोलम्बो से मुम्बई लौटता हूँ, तो करी पाउडर, नारियल दूध पाउडर और दूसरे ज़रूरी मसाले अपने साथ लाना नहीं भूलता। जब मुझे हरी-भरी वादियों, हिंद महासागर के नीले पानी, बौद्ध प्रार्थनाएँ जिन्हें ‘पिरिथ’ कहा जाता है, उनकी कोमल गूँज, सफेद स्तूपों, मरून रंग वाली बसों और न सिर्फ़ अपने श्रीलंकाई परिवार बल्कि वहाँ के तमाम आम लोगों की गर्मजोश मुस्कान की याद आती है, तब स्ट्रिंग हॉपर के साथ परिप्पु और एग हॉपर, मुझे सुकून देने वाले भोजन का रूप ले लेते हैं।

2022 में श्रीलंका के आर्थिक संकट के दौरान मैं कोलम्बो में ही था, तब मैंने अपनी आँखों से देखा कि कैसे दूध पाउडर और ईंधन की कमी हो गई थी और बार-बार बिजली कट रही थी। मेरे द्वीप छोड़ने के दो हफ़्ते बाद ही उस तानाशाही सरकार को, जो देश को एक पारिवारिक कारोबार की तरह चला रही थी, जन-आंदोलन ने सत्ता से हटा दिया। ढाई साल बाद भी, समाज के निचले तबके पर से उस संकट का असर पूरी तरह से नहीं मिटा है। खाने-पीने की चीज़ों के दाम उस स्तर तक पहुँच गए, जिसकी पाँच साल पहले तक कोई कल्पना भी नहीं कर सकता था। एक भारतीय के रूप में, जिसकी मुद्रा, विनिमय दर की वजह से अधिक क्रय-शक्ति रखती है, 2024-25 में मैंने किराना ख़रीदते समय या बाहर खाने पर कोई बड़ा अंतर महसूस नहीं किया, लेकिन जिनकी तनख़्वाह महँगाई की रफ़्तार के साथ नहीं बढ़ी, वे इसकी मार ज़रूर झेल रहे हैं।

मैं मुम्बई में एक तरह से श्रीलंकाई व्यंजनों का ‘राजदूत’ बनने की कोशिश करता हूँ। जब भी घर में मेहमान आते हैं, मेज़ पर श्रीलंका के कुछ पकवान ज़रूर होते हैं। जो भी मेरे घर आता है, वह परिप्पु से वैसी ही मोहब्बत कर बैठता है, जैसी मुझे 2003 में हुई थी, जब मैंने पहली बार इसका स्वाद चखा था। शायद किसी दिन कोई उद्यमी श्रीलंकाई, मेरे शहर मुंबई में भी एक प्रामाणिक श्रीलंकाई रेस्तरां खोले, जैसा कि उनके कई हमवतन पहले ही ब्रिटेन, कनाडा और अमेरिका में कर चुके हैं। दिसंबर 2024 में जब मैं गोवा में था, तो पंजिम में ‘जाफ़ना जंप’ नाम के एक रेस्तरां के पास से कई बार गुज़रा। बहुत बाद में पता चला कि इसे किसी ऐसे शख़्स ने खोला है, जिसका श्रीलंका से गहरा जुड़ाव है, और वहाँ तमिल और सिंहली- दोनों तरह के पारंपरिक व्यंजन मिलते हैं। अगली बार जब गोवा जाऊँगा, तो वहाँ ज़रूर जाना चाहूँगा। तब तक, मेरे पास बस यही सहारा है कि अपनी रसोई में ताज़ा भरे गए श्रीलंकाई मसालों और सामग्रियों के ज़रिए, थोड़ा-बहुत उसी स्वाद का आनंद ले सकूँ, जो उस संस्कृति के काफ़ी क़रीब है, जिसमें मेरी परवरिश हुई है।

फोटो – अजय कमलाकरन

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