अनुवाद – वंदना राग
बाबासाहेब अंबेडकर को याद करते हुए ऐसा अनुमान नहीं लगाया जा सकता है कि उनकी बहुत रुचि खाने में कभी रही होगी । लेकिन जिन लोगों का अंबेडकर के साथ नज़दीक का संग साथ रहा था , उनके अनुसार, अंबेडकर को अच्छी तरह से खाना पसंद था।
उनके मराठी बायोग्राफर सी. बी. खैरमोडे की मार्फत हम यह जानते हैं कि उन्हें अपनी पहली पत्नी , रमाबाई , के हाथों से बनाई गई बोम्बिल चटनी (सुखाया बॉम्बे बत्तख, जिसे भुनकर , कूट कर, टमाटर , प्याज़ और किस्म किस्म के मसालों में लपेट कर बनाया जाता है) बहुत पसंद थी। उनकी दूसरी पत्नी सविता के संस्मरणों से हमें पता चलता है कि अपने विदेश के प्रवासी छात्र जीवन से ही उनकी रुचि पश्चिमी खानपान में रही और वह जीवन पर्यंत बनी रही। लेकिन इन सब के बावजूद अंबेडकर की खाने में रुचि सीमित थी; विविध किस्मों के खाने के प्रति जो एक प्रकार की प्रयोगधर्मी ललक होती है वह उनमें नहीं थी।
Artwork – Vikrant Bhise, 2024
यह समझ में आने वाली बात है और बहुत आश्चर्यजनक भी नहीं। उनकी परिस्थितियाँ और व्यस्तताएं इतनी भीषण किस्म की थीं। एक ही समय में अंबेडकर अनेक संघर्षों में उलझे हुए थे। गिरता स्वास्थ्य, जीवन यापन की चिंताएं और आक्रांता विपक्ष उन्हें घेरे हुए था। ऐसे में व्यक्तिगत रूचियों में डूबने का अवकाश कहाँ मिलता उन्हें?
इसलिए बाकी चीज़ें तो नहीं कर पाए वे लेकिन पढ़ना जारी रहा उनका। और वह भी व्यक्तिगत सुख या ज्ञान अर्जन तक सीमित नहीं रहा। उनका निजी पुस्तकालय ज़रूर सही अर्थों में एक व्यक्तिगत स्पेस था लेकिन वहाँ पढ़ी जाने वाली चीज़ें सार्वजनिक स्थानों पर बहस और विचार के विस्तार के लिए थीं।
Artwork – Vikrant Bhise, 2024
अलबत्ता अपने जीवन के अंतिम दो दशकों में अम्बेडकर को थोड़ी बागवानी करने का ,थोड़ा वास्तुशिल्प गढ़ने का , थोड़ी चित्रकारी करने का और वाइलिन सीखने का अवसर मिला। उनके जानने वाले लोगों के संस्मरणों में अंबेडकर गाहे बगाहे खाना भी बनाते थे लेकिन खुद अंबेडकर ने इन बातों का कहीं बहुत जिक्र नहीं किया।
खाना और उसकी वंचना लेकिन उनकी चिंताओं में हमेशा शामिल रही।
उन्हें भूखे रहने का अनुभव था। जब वे लंदन और न्यू यॉर्क में पढ़ने गए थे तो पैसों की कमी की वजह से कई बार बहुत कम खाना खा पाते थे। और तो और जिस परिवार को वे बंबई में पीछे छोड़कर आए थे वह भी ठीक से खाने के लिए संघर्ष करता रहता था।
अंबेडकर उन अनुभवों के बारे में अक्सर बात करते थे। लेकिन इन अनुभवों को वे अपने तक सीमित ना रखकर उन वंचितों के अनुभव से जोड़ते थे जो संस्थागत रूप से सदियों से शोषित रहे थे। जिन वंचितों के ऊपर भूख सामाजिक संरचना के तहत ज़बरदस्ती थोपी गई थी। अपनी एक अधूरी किताब , अनटचेबल्स, ऑर द चिल्ड्रन ऑफ इंडिया’स् घेट्टो, के एक अध्याय , द इंडियन घेट्टो –द सेंटर ऑफ अनटचेबिलिटी , में वे इसकी विवेचना करते हैं :
इंडिया मुख्यतः एक कृषि प्रधान देश है। आम जन की आय यहाँ कृषि क्षेत्र से ही आती है ( उस दौर में जब अंबेडकर यह लिख रहे थे, यही सच था)। लेकिन, सीमित आय के इस स्त्रोत को भी अछूत समझी जाने वाली जातियाँ हासिल नहीं कर सकती थीं। इसके दो कारण थे – पहला , उन जातियों के पास कभी इतनी पूंजी नहीं होती था कि वे स्वयं के लिए ज़मीन खरीद पायें और दूसरा अगर वे ज़मीन खरीदने की कोशिश करते भी थे तो उन्हें हिंदुओं की तथाकथित अगड़ी जातियों की हिंसा का सामना करना पड़ता था। क्योंकि ज़मीन की खरीदारी इन तथाकथित अछूत जातियों को उनके सम्मुख खड़ा कर देती थी। उन्हें बराबरी के दर्ज़े पर पहुँचा देती थी। उन दिनों पंजाब जैसे कुछ क्षेत्रों में तो इन अछूत समझी जाने वाली जातियों को कानूनी तौर पर भी ज़मीन खरीदने का अधिकार नहीं था।
अछूत समझी जाने वाली जातियाँ सिर्फ मजदूरी कर अपना जीवन यापन कर सकती थीं। उनके पास मोल भाव करने का अधिकार नहीं था। उन्हें कम से कम पगार दी जाती थी और उनकी यह पगार अनाज अथवा पैसे के रूप में दी जाती थी। उत्तर प्रदेश में मजदूरों को जानवरों के मल में पाए जाने वाला मक्का जिसे गोबरहा कहा जाता था, वही पगार के रूप में दिया जाता था।
अप्रैल के महीने में जब मक्के की फसल पक जाती थी तब दँवरी के लिए उसे फर्श पर रखा जाता है। यह मक्के को उसके भूसे से अलग करने के लिए किया जाता है। जब बैलों की जोड़ी के पैरों से मक्के को दरेरा जाता है तो बैल मक्के के दानों को खा भी लेते हैं और चूंकि वे बड़ी मात्रा में मक्का खा लेते है और पचा नहीं पाते हैं तो गोबर के साथ मक्के के दाने बाहर आ जाते हैं। अगले दिन गोबर से उन दानों को अलग किया जाता है और अछूत समझे जाने वाले मजदूरों को पगार के रूप में दिया जाता है जिसे वे आटे के रूप में पिसवाते हैं और उसकी रोटी बनवा कर खाते हैं । (BAWS 5: 23-24)
Artwork – Vikrant Bhise, 2024
जब कृषि का यह सीजन बीत जाता है तो किसान इन जातियों को काम देना बंद कर देते हैं। फिर यह जातियाँ अनियमित और अनिश्चित कामों में लग जाती हैं और थोड़े-बहुत पैसे कमाती हैं। । कभी घास काट कर, कभी जंगल की लकड़ी काट कर बाज़ार में बेचती हैं। ।
देश के जिन क्षेत्रों से अंबेडकर परिचित थे, वहाँ अछूत समझी जाने वाली जातियों के लिए एक ही सुरक्षित आजीविका का साधन रहा था : हिन्दू परिवारों से खाने के लिए भीख मांगने का अधिकार। इस पारंपरिक अधिकार का संज्ञान सरकार ने भी लिया जब जब उन्हें गांवों में निम्न स्तर के सरकारी कामों के लिए पगार निर्धारित करने की ज़रूरत हुई। “पारंपरिक भीख” मांगने का पेशा इस तरह “वैधानिक” बन गया।
खाने के लिए भीख मांगने की परंपरा पर आघात करना अंबेडकर की राजनैतिक सोच और कार्यप्रणाली का अहम हिस्सा था । साल 1927 में महाड, महाराष्ट्र , में आयोजित दो ऐतिहासिक परिषदों में से पहले परिषद के अपने सार्वजनिक जीवन में दिए गए पहले प्रमुख भाषण में उन्होंने लोगों को संबोधित किया और स्पष्ट कहा-लोगों को कृषि अपनानी चाहिए , व्यवसाय में जाना चाहिए, पढ़ना चाहिए , नौकरी पाना चाहिए या कोई भी और काम करना चाहिए लेकिन भीख कत्तई नहीं माँगनी चाहिए।
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इसके बाद के वर्षों में अंबेडकर ने अछूत जातियों के लिए अनेक नीतियाँ सुझाईं जिनसे वे शोषण करने वाली क्रूर जाति व्यवस्था को तोड़ दें और भूख की त्रासदी न झेलें : जैसे कि उन्हे अनुपजाऊ ज़मीनें दी जायें और वे खेती करें; गाँव में अपनी सेवाओं के लिए करार करें और उचित पगार की माँग करें; सार्वजनिक सेवाओं में आरक्षण हासिल करें; अर्थव्ययवस्था के हर क्षेत्र में वैधानिक रूप से न्यूनतम पगार के हकदार हों और उनके लिये यूनिवर्सल बीमा योजना एवं शिक्षा के अवसरों का विस्तार हो ।
शिक्षा के अवसरों के लिए अंबेडकर ने खुद ही अपने प्रयासों से बंबई तथा औरंगाबाद में कॉलेजों की स्थापना की। व्यापक पैमाने पर उन्होंने आधुनिक औद्योगीकरण में बहुत विश्वास जगाया। वे गाँधीवादी परंपरा के हिमायती नहीं रहे कभी । व्हाट कॉंग्रेस एण्ड गांधी हैव डन टू द अनटचेबलस् में वे लिखते हैं (BAWS 9: 283-84): “मशीन एवं आधुनिक सभ्यता मनुष्य को जानवर की तरह जीने से बचाते हैं। वे मनुष्य की दासत्व मुक्ति, उसके आराम और सांस्कृतिक जीवन को संभव करते हैं जो प्रत्येक मनुष्य के लिए नितांत ज़रूरी है।“ (और इसके लिए “सामाजिक ढांचे में बदलाव होना चाहिए” जिससे “यह सब लाभ मुट्ठी भर लोगों को ना मिलकर समाज में सभी के लिए सहजता से उपलब्ध हों”।)
अंबेडकर के लिए अच्छी तरह पकाया और प्रस्तुत किया गया खाना “सांस्कृतिक जीवन” का अहम पहलू था। उनके नई दिल्ली के संयोजित और सुसज्जित घर में (जो उन्हें देश के पहले कानून मंत्री होने की हैसियत से मिला था) एक बहुत बड़ी डाइनिंग टेबल थी। उस घर में नफीस कट्लरी और क्राकरी थी। और एक हॉट प्लेट भी डाइनिंग टेबल के बगल में रखा रहता था, जिसमें खाना ताज़ा ताज़ा गर्म किया जाये क्योंकि अंबेडकर को गर्म खाना पसंद था। (S. Ambedkar: 147-50).
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इन विवरणों को याद करते हुए सविता अंबेडकर ने अम्बेडकरवादी आर्काइविस्ट विजय सुरवड़े को बताया कि उनके पति का नाश्ता तीन भागों में होता था : ओट्स पॉरिज या कॉर्न्फ्लेक्स, फिर उबले अंडे, या अंडे का आमलेट या फ्राइड या स्क्रैमब्लड अंडे, जिसे टोस्ट मक्खन अथवा जैम के साथ वे खाना पसंद करते थे। वे अपना नाश्ता एक कप कॉफी के साथ खत्म करते थे। कॉफी अंबेडकर का प्रिय पेय था। और अगर वे चाय पीते थे तो गरम दूध और काही को अलग केतलियों में रखा जाता था और चाय तैयार की जाती थी।
उनका दोपहर का खाना हल्का होता था : सूप, दो छोटे फुल्के और थोड़े चावल जिसे थोड़े मास के साथ वे खाते थे- भुना या ठंडा मटन, हिलसा मछली , तली पोमफ्रेट, या तला, तंदूरी या रसेदार चिकेन। भोजन की समाप्ति पुडींग के साथ होती थी।
रात को खाना अंबेडकर पसंद नहीं करते थे और रात को काम खत्म कर सीधे अपने पढ़ने के कमरे में पढ़ने लिखने चल देते थे। उनकी पत्नी को बड़ी मिन्नत करनी पड़ती थी कि वे कुछ अपनी पसंद का बनवा कर खा लें और फिर सोने जाएँ।
उन दिनों के कुछ फिल्म स्टार्स की तरह जो हैदराबाद से अपने लिए बिरयानी प्लेन से मँगवाते थे , अंबेडकर भी बर्फ में सुरक्षित हिलसा मछली, कलकत्ता से प्लेन से अपने साथी डी जी जाधव से मँगवाते थे (जाधव वहाँ सरकारी मुलाजिम थे) ।
अच्छे खाने में रुचि (और साथ-साथ अच्छे कपड़ों, नफीस कलमों, फर्नीचर और कला में रुचि ) अंबेडकर के जीवन के एक ऐसे दर्शन से जुड़ा हुआ था जिसके लिए वे बुद्ध के विचारों में समर्थन पाते थे। अपनी अंतिम किताब, बुद्धा एण्ड हिस धम्मा , में उन्होंने यह विचार व्यक्त किया (The Buddha and his Dhamma, BAWS 11: 368, 459) :
[ बुद्ध ने कहा है ] भूख सबसे खराब बीमारी है। अच्छा स्वास्थ्य बहुत बड़ा उपहार है। संतोष सबसे बड़ा धन है । हमें आनंद से जीवन बिताना सीखना चाहिए।
भगवंत ने गरीबी को जीवन का सुंदर यथार्थ नहीं कहा , ना ही उसने गरीबों को ऐसा जीवन जीने को कहा और दिलासा दिया कि इससे पृथ्वी उनकी हो जाएगी और वे आजीवन संतोष से जियेंगे। इसके उलट उन्होंने कहा कि सुख और ऐश्वर्य का स्वागत होना चाहिए। हाँ , उन्होंने यह ज़रूर कहा कि ऐश्वर्य को विनय के साथ प्राप्त करना चाहिए।
और इस तरह अंबेडकर का यह दृष्टिकोण, जो उनकी व्यापक नीति का अंग था, जाति प्रथा के कारण बलपूर्वक भूखे रहने और गांधीवाद के अनुसार स्वेच्छा से भूखे रहने से पूरी तरह अलग था।
संदर्भ :
- अंबेडकर, सविता, डॉ आंबेडकरांच्या सहवासात ( डॉ अंबेडकर के संगत में ), तथागत प्रकाशन: कल्याण , 2013
- BAWS: डॉ बाबासाहेब अंबेडकर राइटिंग्स एण्ड स्पीचेस (एकाधिक खंड), डॉ बाबासाहेब अंबेडकर सोर्स मटीरीअल पब्लिकैशन कमिटी , गवर्नमेंट ऑफ महाराष्ट्र : मुंबई, 1979
(संपादन : नवीन शर्मा)