अनुवाद: कनक अग्रवाल
मॉन्ट्रियल, 1981
कई अनोखे व्यंजनों को मेज़ पर सजाते हुए वह सहसा रुकी और भौहें चढ़ाते हुए बोली, ओह, मैं दही तो भूल ही गयी। कोई बात नहीं, मैंने कहा, यह सोच कि दही इतना ज़रूरी क्यों है?
मॉन्ट्रियल में बड़े होते हुए, मैं भारतीय महलाओं को साड़ियों में देख उनसे बहुत प्रभावित होती – केवल वही होती जो ऐसी दिखती जैसे वास्तव में कहीं और से आई हों। लेकिन रोली पहली भारतीय थी जिससे मैं व्यक्तिगत रूप से मिली थी – राजनीति विज्ञान की कक्षा में – जहाँ हमने एक साथ क्रांति का अध्ययन किया। एक-दूसरे की संस्कृति को बेहतर जानने के लिए उसने मुझे मेरे पहले भारतीय भोज के लिए आमंत्रित किया । उस समय मैं मात्र 18 वर्ष की थी, और नए मूल का खाना चखना, खुद में एक क्रांतिकारी कदम था। इसलिए तब भारतीय खाने में दही के महत्व के बारे में मुझे कोई जानकारी ना थी।
आजकल हमारी मूल, ग्रीक खाद्य संस्कृति, अपने चक्केदार दही के लिए प्रसिद्ध हो गई है। हम इसे अक्सर शहद के साथ नाश्ते या मीठे के रूप में खाते हैं या इसका उपयोग तज़त्ज़िकी (खीरे और दही का सलाद) बनाने के लिए करते हैं। लेकिन यह भारत की तुलना में भोजन का बहुत सीमित अंग है। वह भारतीय भोज ऐसे कई अवसरों में से पहला था, जहां मैंने न ही सिर्फ अपने खानपान से जुड़े रीति-रिवाजों की तुलना की, पर यह भी परखा कि किस तरह हम इनकी वजह से अपनी दुनिया को अलग- अलग क्रम में रखते थे और कैसे दुनिया ने आखिरकार हम दोनों को बदला।
मुझे याद नहीं है कि उस दिन मेरी नई दोस्त ने क्या बनाया था। मुझे बस यह याद है कि सब कुछ कितना तीखा था, और कैसे उसके चेहरे पर हँसी फूट पड़ी थी जब मैंने उसके रोकने से पहले ही एक साबुत मिर्च मुंह में भर ली थी। इस तरह की जलती आग मैंने पहले कभी महसूस नहीं की थी। जैसे ही मैंने पानी की तरफ हाथ बढ़ाया – इस बात से अनजान कि केवल पानी से काम नहीं बनेगा – वह बोल पड़ी: “इसलिए चाहिए हमें दही!”
इस बात को दशकों हो गए। तब से, मैंने कई बार भारत की यात्रा की है, मुझे पेश किए गए हर नए व्यंजन को उत्सुकता से चखा है; मुझे इस बात का अंदाज़ा है कि कोलकाता, दिल्ली, मुंबई या चेन्नई (या फिर लखनऊ, हालांकि मुझे अभी वहां जाना है) में कौन से व्यंजनों की तलाश करनी है; मुझे भारतीय घरों में भोजन के लिए आमंत्रित किया गया है, मैंने शादियों और पूजाओं में शाकाहारी दावतों का आनंद उठाया है, और स्ट्रीट फूड का निडरता से ज़ायका लिया है। मैंने कई मित्रों को अपनी भारतीय डिनर पार्टियों में शौक़ से बुलाया है।
और फिर भी, मुझे आश्चर्य होता है। क्या मैं वास्तव में एक जिज्ञासु पर्यटक की तुलना में भारतीय भोजन के बारे में अधिक जानती हूं? क्या किसी विदेशी पाक शैली तक स्वाभाविक रूप से पहुंचना संभव है, या गहराई से तल्लीन होना? और जिसे हम “भारतीय” या “ग्रीक” भोजन कहते हैं, उससे हमारा क्या मतलब है?
भारत, 1986
मेरी दोस्त लॉरा नई दिल्ली स्थित वाईएमसीए में अपनी थाली की ओर उदास निगाहों से देख रही है: “हाय! यह मछली इसलिए मरी।” मैं भी कुछ-कुछ सहमत थी। हमें वाईएमसीए में अच्छा खाना खाने की आदत हो गई थी। हमारी थाली में मछली भी अच्छी तरह पकी हुई थी। हमें उसे बनाने की विधि पर आपत्ति थी। एक मछली के व्यंजन में इतने भारी मसाले एक ग़लतफ़हमी के जैसे लग रहे थे, और ऊपर से वह भयंकर गर्मी का मौसम!
यह उन दिनों की बात है जब मैंने अपनी कॉलेज की दोस्त लॉरा के साथ मिल कर यात्रा करने का फैसला किया था, जो एशिया के दौरे पर थी। मैंने उसे भारत में मुझसे मिलने के लिए कहा। दिल्ली में। मई महीने में।
वैसे भी मुझे भारत जाने से कोई नहीं रोक सकता था। अत्यधिक गर्मी की खबर सुन मैं सोचती, मैं खुद भी तो एक गर्म देश में पली बढ़ी हूं। मगर मैं गलत थी। उत्तर भारतीय गर्मियों की ब्लास्ट-फर्नेस वाली तीव्रता मेरी त्वचा के लिए उतनी ही नई थी, जितनी रोली द्वारा परोसी हुई मॉन्ट्रियल में मेरी जीभ पर गर्म मिर्च। मैं जाने कैसे भूल गई कि ग्रीस में केवल आवारा कुत्ते और पर्यटक ही भरी दुपहरी में बाहर निकलते थे – और अब, शर्मसार, मैं ही वह पर्यटक थी। लेकिन इस चिलचिलाती गर्मी में भोजन मात्र आवश्यकता भर रह गया था। मैं आश्चर्यचकित थी कि ऐसे गर्म देश में कोई क्यूं एक विस्तृत पाक शैली विकसित करने की ज़हमत उठाएगा। मेरा बस चलता तो जितना संभव होता उतना तरल पदार्थों पर ही जीती। वह गर्मी मैंने चाय और लिम्का के ओवरडोज़ के सहारे काटी। दूसरे दिन हमने वाराणसी घूमने की योजना को भी कैंसल किया और पहाड़ियों का रुख करने का फैसला किया। हाय! हमें क्या पता कि ऐसा हर कोई कर रहा था जो टिकट का खर्च उठा सकता था। हम इंडियन एयरलाइंस के कार्यालय में घंटों बैठे रहे; निजीकरण से पहले के उन दिनों में एकमात्र विकल्प, कश्मीर के लिए एक उड़ान बुक करने की उम्मीद में। अंत में क्लर्क ने हमारी ओर देख कर कहा: कश्मीर के लिए फिलहाल कुछ भी नहीं है। आप दार्जिलिंग क्यों नहीं चले जाते?
तो, हम चले गए। वहाँ की ठंडी हवा ने हमें पुनर्जीवित किया; चाय जैसे अमृत; हमारी थाली का खाना, हमारे आसपास की हर चीज, जो दिल्ली की गर्मी में मानो झुलस गए थे, दोबारा साफ़, स्पष्ट नजर आने लगे।
एक जर्जर आउटडोर कैफे में, मैंने पहली बार छोले खाए। क्या तब मैंने उसे छोले के रूप में पहचाना, या दाल की एक अपरिचित किस्म समझ कर खा लिया? क्या मेरे ज़हन में सवाल आया कि यह हिमालयी पकवान है या इसे मैदानी इलाकों से आयात किया गया है? मुझे बस इतना याद है कि मैं खुद को दोबारा-तिबारा ऑर्डर करने से बड़ी मुश्किल से रोक पाई। और याद है पृष्ठभूमि में बजने वाला वह गीत। मैंने बाद में गायक का नाम पूछा और जाकर उनका कैसेट खरीदा। अब जब भी मैं छोले खाती हूं, पंकज उधास का गीत ‘ला पिला दे साकिया’ मन ही मन गुनगुनाती हूं। बाद में, एक और जर्जर कैफे में, एम. एस सुब्बुलक्ष्मी के बारे में इंडिया टुडे का एक लेख पढ़ते हुए, मैंने दार्जिलिंग के स्थानीय व्यंजन, मोमोज़ खाए। (मैं उसी दिन बाज़ार गई और उनका एक टेप खरीदा; तब से लेकर आज तक मेरे जहन में उनका संगीत और मोमोज़ एक अटूट बंधन में बंधे हुए हैं; सच है, संगीत और पाक संघों का कोई तर्क नहीं होता।)
उस दिन जब मैं घर वापस लौटी, मैंने अपनी पहली भारतीय रसोई की किताब खरीदी।
भारतीय पाक कला, या “भारतीयता”
हमारे यहाँ कहावत है, एक फ्रांसीसी रसोइया चीन में रहते हुए, फ़्रांस में रहने वाले चीनी रसोइये की तुलना में बेहतर चीनी भोजन बना सकता है। वाक्यांश का अर्थ स्थानीय अवयवों के महत्व पर टिप्पणी करना है। लेकिन सिर्फ यही नहीं। ग्रीस में भारतीय भोजन पकाते हुए मेरे पास सिर्फ भारतीय सामग्रियों की कमी नहीं जो आसानी से ना मिले या जल्द खराब हो जाए; भारतीय परिवेश की कमी भी है।
वह खाना पकाना जिसे खाकर आप बड़े नहीं हुए, एक तरह की गैस्ट्रोनॉमिक महत्वकांक्षा है। मेरे घर आने वाले मेहमान भारतीय पाक शैली से अनजान थे। वे अपरिचित थे उन व्यंजनों से जो मैं उनकी प्लेटों में परोस रही थी, उन्हें नहीं पता था कि भारत में मेज़बान या मेहमानों से क्या अपेक्षा की जाती है, वे अजनबी थे इस बात से कि ग्रीस के झींगे या बैंगन भारतीय स्वाद को दोहरा पाते हैं या नहीं, अनजान थे कि उन्हे परोसा हुआ झींगा भारत के उष्ण मालाबार तट से आया व्यंजन था और बैंगन की विधि रेगिस्तान से। दाल की अनुपस्थिति पर उनकी प्रतिक्रिया वही होती जैसी मेरी बरसों पहले दही की कमी के लिए थी: तो क्या हुआ? फिर भी, मेरी भोज-भात की पार्टियां लोकप्रिय थीं, जिनमें लोग आमंत्रित किए जाने के लिए आतुर रहते। मैंने बीस की उम्र पार कर के ही खाना बनाना सीखा था, और यह सफलता मेरे लिए किसी बड़ी उपलब्धि से कम न थी।
मेरा अहंकार तब चूर हुआ जब मैंने पहली बार ग्रीक भोजन परोसा। उनके चेहरे का संतोष और दोबारा-तिबारा अनुरोध कर खाना, मुझे आत्मबोध की ओर ले गया । मेरे दोस्तों ने भले ही मेरी पार्टियों में भारतीय मनोरंजन का आनंद लिया हो, मगर ग्रीक स्पिनेच-पाई और पोर्क-प्याज का यह सादा भोजन उनके लिए कहीं अधिक सार्थक था। क्या वे भी मेरा परोसा हुआ भारतीय भोजन खाते हुए सोचते होंगे कि “यह विदेशी भिंडी अच्छी तो है, लेकिन मेरी माँ की भिंडी से ज़्यादा स्वाद कतई नहीं।” मैं विस्मित थी। साड़ी पहने हुए फिरंगियों की आभा अचानक मेरी आंखों के सामने झूल गई – ज्यों एक आवश्यक वेशभूषा फैंसी ड्रेस में बदल गई; एक सांस्कृतिक विरासत मात्र सजावट में तब्दील हो गई! जैसे सरस्वती की वह सुंदर मूर्ति जो मैंने भुवनेश्वर में खरीदी और अपने भोजन कक्ष में रखी थी, जहां देवी अपरिचित, अलंकृत और अपूज्य खड़ी थीं।
लेकिन क्या इससे कोई फर्क पड़ता है? क्या मूर्ति का सम्मान करने के लिए उसे पूजना आवश्यक है? क्या व्यंजनों का आनंद लेने के लिए उन्हें बारीकी से समझना ज़रूरी? क्या किसी संस्कृति को उसकी पाक कला के माध्यम से समझने की कोशिश करना, महज़ ढिठाई नहीं? क्या सही में इस तथ्य का कोई अर्थ है कि ग्रीक दाल में लहसुन, तेज पत्ता, टमाटर और जैतून के तेल के अलावा कुछ भी शामिल नहीं होता, जबकि भारतीय दालों में विस्तृत तड़के और मसाले शामिल किए जाते हैं?
शायद है। पिछले कुछ वर्षों में, मेरी डिनर पार्टियां कम हो चली हैं, हालांकि मैं अक्सर अपने लिए भारतीय खाना बनाती रहती हूं। लेकिन महामारी के समय कुछ अप्रत्याशित हुआ: मैंने अपनी मसालदानी का इस्तेमाल करना कम कर दिया। अगर में दाल बनाती, तो राजमा चावल की बजाय ग्रीक दाल सूप या ब्लैक आईड बीन सलाद बनाती। मेरी सब्ज़ियों के व्यंजन भी भूमध्यसागरीय रंग में रंगते चले गए। आखिरकार एक महामारी ने मुझे सिखाया कि मेरा अपना, आरामदेह भोजन सही मायने में कौन सा था।
शायद मेरा घर बदलना भी एक कारण था। लॉकडाउन के दौरान मैं अपनी मां के साथ रहने गांव की तरफ आ गयी; वहीं पर मैंने अपने आप से पूछना शुरू किया कि मैं बगीचे से अजमोद के बजाय पंचफोरन के साथ अपनी हरी बीन्स का स्वाद क्यों ले रही। हजारों मील की दूरी से भेजे गए सामग्रियों का उपयोग करना अचानक अपव्ययी और मूर्खतापूर्ण लगा, जब मेरे सावधानी से संग्रहीत मसालों के विकल्प सचमुच मेरी खिड़की को छायांकित करने वाले पेड़ों पर बढ़ रहे थे, या मेरी मां के छोटे बगीचे में, और स्थानीय किसानों के बाज़ारों में लगे ऊंचे ढेरों में।
क्या मेरा दूसरी संस्कृति का खाना पकाना एक तरह का शहरी उपभोक्तावाद था?
कभी-कभी मैंने पक्का इरादा भी किया कि मैं बस वही पकाऊं जो हमारे बुजुर्गों ने हमें खिलाया था, जिस पाक शैली को हमारे परिदृश्य और रीति-रिवाजों ने जन्मा, भुला कर आजकल के सुविधाजनक, गतिशील और आकांक्षी खान-पान को। लेकिन लंबे समय से खोई हुई नारंगी की किस्मों और “हेरिटेज” कहलाने वाले टमाटरों की लुप्त हो चुकी सुगंध ने हेराक्लिटन चेतावनी दी: आप एक ही पाक संस्कृति में दोबारा प्रवेश नहीं कर सकते। जब बीज भी मुट्ठी भर बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा नियंत्रित किए जा रहे हों, जब आपके अपार्टमेंट में लकड़ी से जलने वाले ओवन को इलेक्ट्रिक कुकिंग रेंज में बदल दिया गया हो, तो हम अपनी दादी-नानी के भोजन को पुनर्जीवित करने के बारे में कैसे सोच सकते हैं? और हम क्यूं भुला देना चाहते हैं उनका भारी परिश्रम, हमारी पुरानी रमणीय पाक शैली की तस्वीर को उकरने की ज़िद लिए?
युवा पीढ़ी वैसे भी हमारी पारंपरिक रसोई के बारे में शायद ज्यादा नहीं सोचती। हाल ही में दिखाया गया एक ग्रीक विज्ञापन, जिसमें एक किशोरी यह जानने पर कि उसकी मां छोले पका रही है, पित्ज़ा ऑर्डर करने का फैसला करती है, दस साल पहले अकल्पनीय था। लेकिन एक ऐसे युग में जहां दर्जनों की संख्या में खाद्य-वितरण मोटरबाइक्स सड़के जाम कर रही हैं, घर से काम करने वाले कंप्यूटर कर्मचारी कॉफ़ीशॉप से सुबह की कॉफी ऑर्डर कर रहे हैं और यह अफवाह है कि कुछ व्यस्त माता-पिता सीधे रेस्तरां से अपने बच्चों के स्कूलों में हैम्बर्गर पहुंचाते हैं, विज्ञापन का संदेश सटीक बैठता है।
मैं सोचने लगी कि आज कल के भारतीय मध्यवर्गीय बच्चे किस प्रकार के खान पान पर बड़े हो रहे हैं। घर का बना खाना? या जिसे शांतनु “हिंदू फास्ट-फूड” कहता था – जो अपनी कोलकाता की रसोई में स्वादिष्ट बंगाली भोजन बनाने के लिए मशहूर था? क्या यह वही भयावह फास्ट फूड है जो हम में से बाकी लोगों पर भी थोपा जा रहा है?
मेरी पिछली यात्रा से कुछ जवाब मिले जो अद्भुत भोजन से परिपूर्ण थी: एक पारिवारिक रेस्तरां में शाकाहारी मराठी थाली, पुणे के कॉर्पोरेट कार्यक्रम में रेशमी कीमा, कोलकाता में दुर्गा पूजा की दावत और देर रात के फुचके, मुंबई के समुद्र तट पर भेलपूरी, समुद्री करी और उत्कृष्ट शाकाहारी गुजराती व्यंजन। मगर इन में सब से ज़्यादा याद आती है राजधानी ट्रेन में सफर कर रही वह युवा माँ जो अपने छह साल के बच्चे को नाश्ते में आलू के चिप्स खिला रही थी – जब कि बच्चा पिछली शाम ऐसे दो पैकेट, भोजन और मीठे व्यंजनों के साथ, पहले भी खा चुका था।
कौन गरीब व्यक्ति अपने बच्चों को आलू के चिप्स के खिला सकता है? मोटे, मालदार लोग ज़मीन जायदाद और निजी स्कूलों की चर्चा करते हुए मॉल और हवाई अड्डे के लाउंज में पाए जाते हैं। दूसरी तरफ उनके ड्राइवर व घरेलू कामगार, फल विक्रेता और श्रमिक, ज्यादातर दुबले-पतले और गठीले होते हैं। इस दुनिया में, एक मोटे छह साल के बच्चे को बड़ा करना, जो सिर्फ ट्रेन के डिब्बे में खेलने से थक जाए, किसकी ख्वाहिश हो सकती है?
ग्रीस में भी ऐसे छह साल के बच्चों को ढूंढना कोई चुनौती नहीं है। पिछले कुछ दशकों में अगर ग्रीस के तटीय परिवारों की तस्वीरें देखी जाएं तो मां बाप और बच्चे दोनो बढ़ते आकार के नजर आते हैं, और बच्चों पर तो शायद ही कभी खाने की रोक टोक होती है – कुपोषण व भूख की सामूहिक स्मृति, और एक अंतर्निहित डर कि आज जो ऐशो-आराम है वह रातोंरात गायब हो सकता है, अभी भी हमें प्रभावित कर रहा है। लेकिन ग्रीस में अधिक वजन वाले कामकाजी वर्ग से हैं। लंबे ऑफिस और स्कूल के दिनों में व्यवस्थित भोजन के बजाय इधर-उधर का नाश्तापानी ज़्यादा होता है। किसानों के हरे-भरे बाज़ार पेंशनरों, दादा दादियों के हिस्से आते हैं जो अपने कामकाजी परिवारों के लिए खाना बनाते हैं। चमचमाते सुपरमार्केट में दिखाई देते हैं हड़बड़ा कर प्रीपैकज उत्पादों से अपनी ट्रॉलियों को भरते हुए, चेकआउट काउंटर की ओर कैंडी डिस्प्ले पर अपने बच्चों के साथ बहस करते हुए कमाऊ वर्ग के लोग।
इस हफ्ते मैंने चेकआउट काउंटर पर कुछ और देखा: ग्रीक गैस्ट्रोनॉमी पत्रिका का नया अंक जिस में भारतीय भोजन पर एक कवर स्टोरी थी। मैंने तुरंत पत्रिका उठाई और बड़ी संदिग्धता के साथ पढ़ना शुरू किया जैसे कोई अपनी संस्कृति के लिए विदेशी प्रकाशन द्वारा लिखे लेख पर संदेह करता है। मुझे जानकर राहत मिली कि संपादकों ने न केवल रेस्तरां बल्कि एथेंस में रहने वाले भारतीयों से भी उनके परिवार में खाना पकाने की जानकारी ली थी। दाल पर अलग अनुच्छेद देख मैं खुशी से मुस्कुराई। जब एक साक्षात्कारकर्ता ने कहा कि साठ प्रतिशत भारतीय सख्त शाकाहारी हैं तो मैंने फौरन अस्वीकृती जतायी – यह संख्या कहां से आई? पत्रिका की नकली देवनागरी लिपि मुझे उपहासजनक लगी। मगर अपने पसंदीदा व्यंजनों की रसीली तस्वीरों को देख मैं मुग्ध हो गई। मैंने सारे भारतीय रेस्तरां और दुकानों के पते नोट कर लिए। मैं बड़ी खुश थी कि आखिरकार एथेंस में एक दोसा की रेस्तरां खुल ही गई।
स्थानीय खाना बनाने के मेरे संकल्प का क्या हुआ? राष्ट्रीय व्यंजनों और खाद्य पर्यटन के बारे में मेरे प्रश्न कहां गए? बिरयानी की खुशबू वाले धुएँ में!
नहीं, मुझे नहीं लगता कि मैं कभी भी भारतीय खाना बनाना बंद करूंगी, या उसके असली स्वाद के लिए तरसना।
भारतीय खाना पकाने के मेरे संघर्षों ने मुझे अपनी आदतों और धारणाओं के बारे में बहुत कुछ सिखाया, जो मुझे फ्रेंच या इटालियन व्यंजन नहीं सिखा पाए। ग्रीक और भारतीय पाक संस्कृति कुछ लक्षण साझा करते हैं जो पश्चिमी यूरोप से जुदा हैं : हम व्यंजनों को अलग-अलग पाठ्यक्रमों में विभाजित करने के बजाय, उन्हे संग परोसना पसंद करते हैं, और दोनों ही सब्जियों और दालों को साइड डिश के बजाय भोजन का केंद्र या संपूर्ण आहार भी मानते हैं। दोनों ही संस्कृतियां एक खास गुणवत्ता को प्रदर्शित करती हैं जिसकी मैं सबसे अधिक कायल हूं: स्वादिष्ट व्यंजन बनाने की क्षमता उन सामग्रियों से, जो अपने आप में स्वाद-गहन नहीं हैं। (यदि आप मुंबई स्थित गुजराती रेस्तरां में दाल और बाजरा जैसे सहज सामग्रियों से अपूर्व भोजन तैयार कर सकते हैं, तो आप ट्रफल्स या सॉसेज जैसी बेहतरीन सामग्रियों से भोजन बनाने में कहीं ज्यादा कामयाब हैं।)
मैंने अब इस बात से खुद को मना लिया है कि मैं हमेशा भारतीय पाक संस्कृति के लिए एक आगंतुक ही रहूँगी। (और एक चीज जो मैंने सीखी है वह यह है कि संस्कृति को सिर्फ एक काल्पनिक राष्ट्रीय व्यंजन तक सीमित नहीं किया जा सकता है, क्योंकि स्थानीय अनुभव देखें तो ऐसी कोई चीज नहीं होती।) आप बस इतना कर सकते हैं कि किसी भी विदेशी खाने को विनम्रतापूर्वक अपनाएं, जानते हुए कि आपके सामने रखा वह सरल सा पकवान जाने कितनी सामाजिक और सांस्कृतिक वास्तविकताओं और विचारों के विशाल घूमने वाले नक्षत्र का प्रतिनिधित्व करता है। आप बस उसका आनंद ले सकते हैं।
वर्षों पहले, मैं अपने मां-बाबा के लिए भारतीय मिठाइयों का एक डिब्बा लंदन से लाई जब अपने दक्षिण एशियाई अध्ययन से घर वापस आई (वहाँ मुझसे अक्सर पूछा जाता “भारतीय इतिहास का अध्ययन करने वाली एक यूनानी? कैसे?” यह सवाल अंग्रेजों या जर्मन्स से कोई नहीं करता) – बर्फी, गुलाब जामुन और गाजर का हलवा।
मेरे बाबा, जो पूरे परिवार में खाने के सबसे ज़्यादा शौक़ीन थे, मिठाई को बिलकुल बेस्वाद बताया। “यह तो साबुन की तरह है,” उन्होंने ही मेरी प्यारी पिस्ता बर्फी के बारे में कहा। क्रोधित हो, मैंने उनके लिए कभी कुछ नया न लाने का संकल्प लिया। बात साफ़ थी! वे इसके लायक ही नहीं थे!
अगले दिन दोपहर, भोजन के बाद, जब वे अपनी कॉफी बना रहे थे, बाबा ने धीमे-से आ कर कहा, “थोड़ा साबुन और मिल जाए तो अच्छा लगेगा।”