मैं अपने-आप को लेखक नहीं समझता। जैसे खेलते – खेलते लोग खिलाड़ी कहलाने लगते हैं उसी तरह मैं बिन मंशा, बिन पढ़ाई –लिखाई, लिखने लगा और लेखक कहलाया जाने लगा। लेकिन लेखक होने से पहले मैं एक रसोइया था। उससे पहले मैं रिक्शा चलाया करता था और उससे भी पहले… क्या-क्या कहूँ? फेहरिस्त लंबी है।
Artworks © Amritah Sen
दरअसल मेरी ज़िंदगी असफलताओं की मिसाल रही है। ज़िंदगी मुझे इतनी जगहों पर लेकर गयी है कि अब मुझे वे पते भी याद नहीं, जहाँ-जहाँ मैं गया और मैंने काम किया। मैं पढ़-लिख नहीं पाया। मेरे पिता के पास इतने साधन नहीं थे कि वे मेरे लिये पढ़ने लायक किताबें और पेट भर खाने का इंतज़ाम कर सकें। इसीलिए पेट भरने के लिये मैं हर वह काम पकड़ लिया करता था जो मुझे ज़िंदा बचा कर रख सके। मैंने कुली का काम किया, दिहाड़ी पर मज़दूरी की, रिक्शा चलाया, डोम का काम किया, मैला साफ़ किया, ट्रक पर खलासिगीरी की, चौकीदारी की और एक बार मैंने, एक अनाथालय के लिये विधिवत भीख माँगने का काम भी किया।
मैं जब बच्चा था तभी से काम पर लग गया था। तब मैं इतना बच्चा था कि बिछौने पर पेशाब कर देता था और उसे काबू करने लायक नहीं हो पाया था। उस वक़्त मुझे गाय, बकरी चराने के काम पर लगा दिया गया था। उसके बाद चायखाने पर नौकर हुआ। वैसे उस वक़्त तो यह बात चिंतनीय नहीं लगती थी लेकिन आजकल जब से एक चायवाले का नाम ज़ोरों से फिज़ा में गूँजने लगा है और लोग उससे खौफ़ खाने लगे हैं तो चायवाला होने की बात भी चिंतनीय लगने लगती है। लेकिन मैं खौफ़नाक कभी नहीं रहा। सच तो यह है कि ना मैंने कभी चाय बनाई ना ही चाय बेची। मैं तो बस उस चायखाने में एक अदना नौकर की हैसियत रखता था और गंदे गिलास धोता था।
अगर मेरी हैसियत चाय बेचने की होती तो मैं भी आज, दस लाख का सूट पहनता और लाखों रुपयों वाले स्वादिष्ट मशरूम खाता, महँगे हवाईजहाज़ों में उड़ता, मेरा घर पंद्रह हज़ार करोड़ का होता, मेरे आसपास हज़ारों की तादाद में चाकरी करने वाले लोग होते, पचास लाख कमाने वाला प्रसाधक (ब्यूटिशियन) मेरा मेकओवर करता और जब-जब मुझे ज़रूरत महसूस होती, मैं अपना मेकअप करवाता और करवाता ही रहता। मैं अपनी मर्ज़ी से दुनिया भर में चक्कर लगाता, लाल और नीली परियाँ मेरे आस-पास मंडराती रहतीं और लाखों रुपए मेरे मनोरंजन में खर्च होते। इतना सब कुछ, मेरे हाथों से सिर्फ इसलिए फिसल गया क्योंकि मेरे पास एक चायवाला होने की काबलियत नहीं थी।
जब मैं किशोरावस्था में पहुँचा तो मैंने एक राजमिस्त्री के सहायक के रूप में काम किया। मैं रोज़ सुबह उठकर मुख्य सड़क पर काम ढूँढने निकल जाता था। मेरी तरह के अनेक काम ढूँढने वाले लोग इसी तरह सड़क पर जमा होते थे। वे सब बंगाल के अलग-अलग कोनों से काम की तलाश में आते थे। वैसे सोच जाए तो हमारे देश में, ज़रूरत से ज़्यादा मजदूर हैं और उन्हें काम देनेवालों की संख्या कितनी कम। हर दिन मजदूरों की संख्या बढ़ती जाती है और ज़ाहिर है, सबको काम नहीं मिलता है। जैसे जानवरों के बाज़ार में तंदुरुस्त, खायी–पीयी गाय को जिबह के लिये परखा जाता है वैसे ही हमें राजमिस्त्री परखते थे और मोलभाव करते थे। जो मजदूर सबसे कम पैसों पर काम करने को राज़ी हो जाता था उसे ही वे काम पर रख लेते थे।
एक दिन एक आदमी आया और मेरे सामने ठहर गया। इतना मोटा, चर्बी से भरा, भारी शरीर था उसका कि क्या कहूँ? कीर्तनियों जैसे लंबे-लंबे बाल थे उसके जिनमें जम के सरसों तेल मला हुआ था। पैरों के तलवे कटे-फटे थे। चप्पल उसने पहनी नहीं थी। धड़ पर पूरे बाँहों की सफेद बनियान कसी हुई थी जिसपर पीले धब्बे थे। गर्दन पर से मोटा जनेऊ झाँक रहा था। जनेऊ इतना मोटा था कि उससे एक गाय को नाथा जा सकता था और आत्महत्या तो क्या बखूबी हो सकती थी। उस आदमी के मुँह से कुछ दाँत गायब थे।लेकिन बावजूद इस कमी के, उसका मुँह अलसुबह ज़रदा पान से ठुंसा हुआ था जिसकी झनझनाती खुशबू हवा में तारी हो रही थी। वह मेरे नज़दीक आकर बोला – “एई, मेरे साथ काम करेगा?”
मैं सुबह से काम के इंतज़ार में था। कोई तो ऐसा आए जो मुझे काम दे!जिससे मैं थोड़ा पेशगी लूँ, दोपहर का खाना मोल लेकर खाऊँ और शाम के लिये सब्जियाँ खरीद घर ले जाऊँ, जिससे मेरे माता-पिता और भाई बहन भी अपना पेट भर सकें।
“कैसा काम है आपके पास?” मैंने पूछा।
“विवाह समारोह का काम है.” उसने जवाब दिया।
“तुम्हें ट्यूबवेल से पानी निकालना होगा, फिर उसे ड्रमों में भरना होगा। खाने के लिये मसालों को खलबत्ते से कूटना होगा, केले के पत्तों और मिट्टी के गिलासों को धोना होगा खूब ठीक से और खाना ख़त्म होने के बाद गंदे पत्तों और मिट्टी के गिलासों को उठाकर फेंकना भी होगा।”
यह बहुत पहले की बात है। उस समय मिक्सर-ग्राइन्डर नहीं होते थे और आप को कुटे-पिसे मसाले दुकानों पर भी नहीं मिलते थे। अतिथि कागज़ की प्लेट में खाने के आदी भी नहीं हुए थे। उस समय केटरिंग बिज़नेस जैसा कोई काम शुरू नहीं हुआ था इसीलिए ऐसे समारोहों में घर का मुखिया, खुद सारे काम करता और करवाता था। वह बाज़ार से कच्चा माल खरीदता था, रसोइयों को बुलाता था, उनसे समूचे आयोजन का खाना बनवाता था जिसे बाद में घर के लोग ही अतिथियों को परोसते थे। जब खाना परोसने की बारी आती थी तो मैं देखता था कि बड़ी उम्र के लोगों से अधिक, नौजवान लड़के काम में बढ़-बढ़ कर उत्साह से हाथ बँटाते थे। मैं देखता था कि वे मटन से भरी बाल्टी और मिठाइयां ले महिलाओं के इर्द-गिर्द मंडराया करते थे और मधुर आवाज़ में अनुरोध करते थे – “आप रोशोगुल्ला क्यों नहीं खातीं, बहुत अच्छा है, असली वाले भीम राज का है। एक और पीस मटन खाइए न!”
इन नौजवानों की हरकतों को देख यह साबित हो जाता था कि वे महिलाओं के दिल तक पहुँचने का रास्ता ढूँढ रहे हैं। वे परोसने के बहाने महिलाओं से प्रेम निवेदन करने की कोशिश करते थे – “हमें अपने दिलों में थोड़ी जगह दीजिए ना.. हम वहाँ रहना चाहते हैं।”
खैर!
उस पृथुलकाय आदमी ने मुझे उस दिन तीन रुपए प्रति दिन का वेतन और भर पेट भोजन का प्रस्ताव दिया। मुझे मछली, मीट, दही, मिठाई सबकुछ खाने की छूट थी। मैं तब तक खा सकता था जब तक मेरा पेट पूरी तरह ठुँस ना जाए और मैं उसके बाद कुछ भी खाने लायक ना रहूँ। इसके अतिरिक्त बचे-खुचे खाने को गमछे में बाँध घर ले जाने की छूट भी वह मुझे दे रहा था। इस घटना को याद करते ही मुझे एक दूसरी घटना याद आ गयी जो बाद में घटी थी।
नरेश ठाकुर नाम के एक आदमी के साथ, हम सब मज़दूर काम पर जाते थे। नरेश ठाकुर का एक सहायक था जिसका नाम दुखे था। ज्यादा दिन दुखे, दिहाड़ी मज़दूर की तरह काम करता था, लेकिन इस बार जैसे ही उसे भरपूर भोजन की संभावना दिखी वह हमारे साथ हो लिया। हालाँकि यहाँ उसे सोलह घंटे की मज़दूरी के मुकाबले कम पैसे मिल रहे थे, फिर भी वह खुश दिख रहा था।
नरेश ठाकुर, मालिक के पास सामानों की सूची भेजता था जिसे समय-समय पर खरीदा जाता था। उस दिन भी नरेश ने मालिक के लिये एक सूची तैयार कर रखी थी। उन दिनों लोग अपने स्वास्थ्य को लेकर इतने चिंतित नहीं रहा करते थे जैसे आज रहते हैं। लोगों ने भोजन को हिस्सों में बाँट कर खाने का अनुशासन अपने ऊपर नहीं लादा था। लोग ख़ूब छक कर खाया करते थे और इसे एक सकारात्मक बात माना जाता था। जो लोग छक कर खाते थे उनका मेजबान लोग विशेष ध्यान रखते थे। उनको इस अदा के लिए सराहते थे और खाते वक़्त और अधिक खाने के लिये प्रोत्साहित किया करते थे।
नरेश ने सूची देखी – सौ लोगों के लिये ढाई किलो मूँग दाल का अनुमान लगाया गया था। दाल की मात्रा मछली की मुंडियों की वजह से और बढ़ने वाली थी। “प्रत्येक अतिथि के हिस्से में चार मछली के टुकड़े आने वाले हैं ध्यान रखना,” नरेश ने कहा, “एक किलो में कम से कम सोलह टुकड़े हों बिना मुंडियों वाले, बीस किलो मटन भी प्रत्येक सैकड़ा और चार पीस रोशोगुल्ला प्रत्येक अतिथि को मिलना चाहिए।” उस दिन ठाकुर लोग सबके खाने के बाद खाने पर बैठे। इसके बाद घर लौटने वाली यात्रा लंबी और थका देने वाली थी इसलिए वे अधिक खाना बांध कर ले जाने को उत्सुक नहीं थे। इतने सारे खाने को समेटने का एक ही उपाय था-सबकुछ पेट में ठूंस लेना।
उस समय मैं कलकत्ता से भागकर जलपाईगुड़ी आ गया था और मिठाई की एक दुकान में नौकर हो गया था। वहाँ मुझे कोई वेतन नहीं मिलता था, बस खाने को मिलता था। दिहाड़ी की मजदूरी में, मैं प्रतिदिन दो रुपए कमा लेता था, लेकिन यहाँ ऐसा कुछ भी नहीं मिलता था। दूसरे शब्दों में कहूँ तो यहाँ वे मेरी मजबूरी का फायदा उठा रहे थे। लेकिन मैं आसानी से ठगा जाने वाला नहीं था। इस अन्याय का बदला, मैं दस रसगुल्ले, कलाकंद और चमचम खा कर ले लेता था। इसमें प्रत्येक मिठाई का दाम चार आना था। एक दिहाड़ी मज़दूर को आठ घंटे काम करने के बाद तीन रुपए मजदूरी मिलती थी, रसोई बनाने के लिये भी इतने ही पैसे मिलते थे लेकिन दुगने घंटों तक काम करना पड़ता था। ऐसे में वे बेचारे खाने का काम करने वाले क्या करते? वे अपने अतरिक्त घंटों के एवज में खाना खा कर पैसों की भरपाई करते थे। मेघ दास तो मुँह में पान दबाए-दबाये कलाकारी दिखाता था और पान को पीछे कर, मुँह के बाएं हिस्से से मीट, मछली काजू, किशमिश और खजूर चबाने की कला को साध चुका था। वह सैकड़ों, नज़र रखने वाले चौकीदारों के सामने बैठकर इस कला को अंजाम देता था और चौकीदारों को उसके खाने का पता नहीं चलता था। उन्हें लगता था मेघा दास तो सिर्फ पान चबा रहा है।
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बाबूलोगों की प्राचीन मान्यता थी – सारे रसोइये चोर होते हैं! उनके अनुसार, जैसे ही लोग रसोइयों की नज़रों से ओझल होते हैं रसोइये पट से अपने मुँह में खाने की चीज़ रख लेते हैं। इसीलिए तेज़ नज़र वाले व्यक्ति को ही नए रसोइये पर निगरानी रखने का काम सौंपा जाता है। ये नज़र रखने वाले ओवरसियर बड़ी शांति से नरम स्वरों में बात करते हैं। ये रसोईघर के सामने कुर्सी डाल कर बैठ जाते हैं और कहते हैं – “ना ना मैं यहाँ निगरानी रखने नहीं आया हूँ। यदि किसी को कुछ पकाना है तो उसे कौन रोक सकता है? मैं तो यहाँ हूँ क्योंकि खाना पकते देखना मुझे अच्छा लगता है।” कोई भी रसोइया इस बात पर यकीन नहीं करता और कहता – “अरे कोई बात नहीं तुमको जितनी निगरानी रखनी है रखो, हमको कोई फरक नहीं पड़ता है। हम चोर थोड़े ही हैं।”
“क्या पैसे तुम्हें अभी चाहिए? क्या कल आकर नहीं ले सकते?”
“हाँ सर अभी चाहिए। कल वापस आने का मतलब एक पूरा दिन बर्बाद करना होगा। हमें बस की टिकट पर भी पैसा खर्च करना होगा। जो पैसा आप अभी दे देंगे तो बहुत झंझटों से मुक्ति मिल जायेगी।”
मालिक अंदर गया और पैसे ले आया। जब नरेश उन्हें गिनने लगा तो उसने पाया उसमें दो रुपए कम थे।
“ इसमें दो रुपए कम हैं बाबू!” नरेश ने कहा।
“ना ना बिलकुल नहीं। मैंने खुद जोड़ा है।” इसके बाद मालिक उर्फ मजूमदार बाबू, बारिसाल वाले उच्चारण में कहने लगे,- “सोलह रुपए तुम्हारे चार पिच्छलग्गुओं के लिए और आठ तुम्हारे लिये। कितने हुए? चौबीस रुपए! जिसमें से पाँच तुम पहले ही ले चुके हो पेशगी, अब बचे उन्नीस, फिर तुम्हारे आदमी ने मछली के तीन टुकड़े अधिक खाए हैं इसीलिए मैंने हिसाब में से दो रुपए और काट लिये हैं। सत्रह रुपए दे रहा हूँ, सही हिसाब से। खुद गिन लो। गिनो ना!”
“लेकिन… लेकिन…” नरेश हकलाने लगा, “ऐसा कैसे ? हम तो हर जगह मुफ़्त में खाते हैं। आप उसके लिये भी हमारे पैसे काट रहे हैं?”
इसपर वह आदमी चिंघाड़ने लगा – “तुमने अपने हिसाब से मछली के चार टुकड़ों की बात कही थी फिर वे सात कैसे हो गये ? मुफ़्त का होने का मतलब यह तो नहीं कि तुम सारा गड़प जाओ। इसे एक सीख की तरह लो और आगे जहाँ भी काम पर जाओ सावधानी बरतो।”
“लेकिन” नरेश ने अपनी मेहनत के पैसे वसूलने का अंतिम प्रयास किया – “सबने तब तक खा लिया था बाबू और खाना बहुत बच गया था, इसीलिए.. !”
“बचा हुआ खाना हो या ना बचा हुआ खाना..याद रखो जो बच जाता है वह मेरा है और मैं उसके साथ क्या करता हूँ, यह मेरे मन पर है – मैं उस खाने को आदमियों को खिलाऊँ या कुत्तों को डालूँ, यह तुम मुझे नहीं बताओगे।” यह कह, ज़ोर से दरवाज़े को हमारे मुँह पर बंद करता हुआ वह घर के अंदर चला गया।
उस दिन ज़िंदगी में पहली बार मुझे वह गंध महसूस हुई थी जो बाबुओं की देह से निकलती है! उस दिन पहली बार मैंने संभ्रांत भद्रलोक का असली चेहरा देखा था। देह से निकलती वह दुर्गंध मेरे अंदर उबकाई पैदा कर रही थी और मैं अंदर तक हिल गया था। उस दिन के बाद से मेरे अंदर बाबू लोगों के प्रति रोष बढ़ता ही गया, जिससे मैं उनपर अब सहज भरोसा ना कर पाता था और उनसे सतर्कता बरतने लगा था।
मैं विभाजन की संतान था। शरणार्थियों के घर जन्मा था। पौष्टिक खाना तो दूर की बात है, हमें एक वक़्त का भरपेट भोजन भी नसीब नहीं होता था। पहले मेरे पिता मज़दूरी कर कुछ खाना घर ले आते थे, लेकिन बाद में वे गैस्ट्रिक अल्सर से पीड़ित हो गये और काम पर जाने लायक नहीं रहे। मेरा परिवार मेरे भरोसे हो गया। मैं जितना कमाता था उतने पैसों मेँ कभी थोड़ा गेहूँ खरीद पाता था कभी थोड़ा मकई। उन दिनों मेरे पास नमक और सब्ज़ी खरीदने के भी पैसे नहीं होते थे इसीलिए मैं सामने आए रोज़गार को ठुकरा नहीं पाता था। दूसरा कोई रोज़गार होता तो मुझे आठ घंटे काम करना होता और यहाँ सुबह सात बजे से मध्यरात्रि तक काम करना था, फिर भी मैंने यह काम स्वीकार किया था। एक कहावत है न – ज़िंदगी का प्रत्येक अनुभव हमें धनवान बनाता है! मैं उसमें यकीन रखता हूँ। कौन जानता था कि रसोइये के रूप में मेरा वह अनुभव बाद की ज़िंदगी में मेरे काम आएगा? देखिये न, उसी की वजह से तो मैं आज यह लेख लिख रहा हूँ।
मैं निचले से भी और कहीं नीचे वर्ग का हूँ। भारतीय जाति व्ययस्था का वह अछूत बालक – जिसका अपराध, बचपन में ही तय कर दिया जाता है। यदि मेरी जाति का कोई व्यक्ति किसी ऊँची जाति वाले का भोजन छू ले, तो वह पाप होता है। जो व्यक्ति मुझे बुलाने आया था वह इसी अछूत जाति का था और चूँकि उसे अच्छा भोजन बहुत प्रिय था तो उसके पास इस धंधे में जाने के अलावा कोई चारा नहीं था। यह तय करने के बाद उसने इस धंधे में प्रवेश पाने का एक उपाय सोचा- उसने एक गुरु ढूँढा जो अपने शिष्यों को पवित्र धागा पहनाता था और उन्हें उनकी निचली जाति से मुक्त कर देता था। इस तरह की चालबाज़ी से इस आदमी ने अनेक शिष्य जुटा लिये थे।
गले में झूलते पवित्र धागे को देख सभी को विश्वास हो जाता है कि धागा पहनने वाला ब्राह्मण है। इसीलिए जो लोग ओड़ीशा से काम की खोज में कलकत्ता आते हैं, वे हावड़ा ब्रिज पर ही वही पवित्र धागा –जनेऊ खरीद कर गले में डाल लेते हैं। जिस आदमी ने मुझे काम पर रखा था उसी का नाम मेघा दास था। वही मेघा जो पान चबाने के साथ-साथ खाने की बढ़िया चीज़ें भी चबा लेता था। वह इस गुरुजी का शिष्य बन बहुत लाभ उठा रहा था। अब उससे कोई नहीं पूछता था कि वह किस जाति का है। सिर्फ एक बार किसी ने उससे पूछा था – “क्या तुम ब्राह्मण हो? तुम कबसे ब्राह्मण हो गये? क्या गायत्री मंत्र भी जानते हो?” यह बोल वह व्यक्ति खूब हँसा था। उसी मेघा दास ने मुझसे पूछा- “क्या नाम है तुम्हारा?” तो मैंने अपना नाम उसे बता दिया। इसपर उसने मुझसे कहा – “जब भी अपना नाम बताओ अपना आधा ही नाम बताओ, अपना टाइटल कुलनाम मत बताओ। अपना टाइटल कुछ भी मन से रख लो। सब समझेंगे कि तुम कायस्थ जाति के हो। तुम किसी की परवाह मत करना। तुम्हारा लक्ष्य वहाँ काम कर, पैसे कमा, चल देना है। बाकी लोगों को जाति कि माँ-बहन चोदने.. दो।”
जिस विवाह समारोह में हम उस दिन गये थे उस दिन वहाँ चार सौ अतिथि आमंत्रित थे। दिन शांत था। लेकिन शाम के समय जब हमने खाना पका लिया और हमारा काम पूरा हुआ तभी ज़ोरों की आंधी व तूफान आ गया। खड़े हुए पेड़ धराशायी हो गये और आसमान को चीरती हुई बिजली चमकने लगी। अब कोई भी गाड़ी–घोड़ा आ नहीं सकता था। घरों की बिजली कट गयी और गहरा अंधियारा पसर गया।
कुछ घंटों बाद जब बारिश थमी तो सड़कें पानी से भर गई थीं। आसपास के ताल-तलैयों का पानी सड़क पर जमा हो गया था। उन दिनों सड़कें भी इतनी ठीक नहीं थीं और नालियाँ ऊपर तक भरी रहती थीं। जिस इलाके में हम काम करने गये थे उसकी सड़कें ईंटों से बनी थीं जिसमें बड़े-बड़े गड्ढे थे। उस इलाके में सिर्फ रिक्शा चल सकता था। लेकिन अब, जब इतना पानी भर चुका था तो रिक्शे वालों ने भी यहाँ आने से मना कर दिया। रिक्शे वालों को डर था कि यदि रिक्शे का कोई पहिया गड्ढे में अटक गया तो पहिया टूट जाएगा। रिक्शा में चढ़ने वालों पर जो आफत आएगी सो अलग। अगर रिक्शा उलटने से वे गड्ढे में गिर गये और उनके कपड़े खराब हो गये तो फ़िर क्या हो? और अगर उनके हाथ पैर टूट गये और उन्हे अस्पताल जाने की नौबत आ जाये तो और कितनी मुश्किल!
अब दूर रहने वाले रिश्तेदार कैसे आते? वैसे भी वह इलाका शाम के बाद आपराधिक गतिविधियों के लिए कुख्यात था। शाम को वहाँ अनेक बदमाशों के समूह सक्रिय हो जाते थे। गोलियाँ चलने की घटना वहाँ आम बात थी। फ़र्ज़ किया जाए कि यदि किसी करिश्मे के बाद रिश्तेदार विवाह स्थल पर आ भी जाते तो उनके सुरक्षित वापस लौटने की गारंटी कौन लेता? अन्ततः चार सौ अतिथियों में से सिर्फ ढाई सौ अतिथि आ पाए। घर का मुखिया इतना सारा बचा हुआ भोजन देख परेशान हो गया- क्या होगा इतने खाने का? उस समय फ्रिज भी नहीं हुआ करते थे। मोहल्ले में कुछ दुकानें ज़रूर होती थीं जो स्टील के बक्सों में बर्फ रखती थीं, जिनमें कोका-कोला और सोडा रखा जाता था।
वैसे सोचा जाये तो फ्रिज के जितने फायदे हैं उतने ही उसके नुकसान भी हैं। याद आता है, एक बार हम दोनों कारीगर एक विवाह समारोह में गए। हमें विवाह से पहले दो दिन और विवाह के बाद दो दिन काम करना था। हमें विवाह वाले दिन खाना नहीं पकाना था, उस दिन हमसे बड़ा रसोइया खाना पकाने वाला था। हमें मामूली, खाने बनाने थे। विवाह वाले दिन पहले का बचा हुआ खाना लाकर फ्रिज में रख दिया गया था। राधाबल्लभी, मटन, मछली, चटनी और तली हुई मछली। अगले दिनों में जब भी हमें खाना होता हम उसमें से कुछ निकाल कर, गर्म कर खा लेते। घर के लोग अलबत्ता, चारपोना और महीन चावल खाते। वही ताज़ा खाना जो हम पका रहे थे। लेकिन जब हमारे खाने की बारी आती तो घर की मालकिन फ्रिज खोलती और हमें बासी, बचे हुए खाने में से कुछ दे देती। भद्र लोक सोचा करते थे कि, जो भी घर पर रसोइया आता है वह चोरी करता ही है, चुपके से छिपा–छिपा के खाता ही है उसपर कैसे भरोसा किया जाये, उसे और अतिरिक्त खाना क्यों दिया जाये? ऐसा पूरी तरह गलत भी नहीं था। खाना एक ऐसी चीज़ है जो सबको आकर्षित करती है। हम रसोइये हैं तो इसका मतलब यह कत्तई नहीं कि हम बढ़िया स्वादिष्ट खाना खाने का सपना नहीं देखते हैं। लेकिन यदि यह बात हम किसी मालिक से साफ़-साफ़ कहेंगे तो भी वह हमें खाने का प्रस्ताव नहीं देगा, इसीलिए रसोईयों से छोटी-मोटी चोरी हो जाती है…!
एक बार हम एक अन्य विवाह समारोह में खाना पकाने गए- कि न जाने क्या हुआ, मेरे साथ वाले ने असह्य भूख से पीड़ित हो या असीम लालच से कमज़ोर हो, दो मुट्ठी भरकर दूध पाउडर, एकबार में ही फाँक लिया जल्दी–जल्दी। उस दिन बड़ी मुश्किल से वह बचा- इस तरह से मुँह भर जाने से उसका दम घुटते-घुटते बचा।
मैं झूठ नहीं बोलूँगा- मैंने भी कभी–कभी खाना चुराया है! तली हुई मछलियाँ, घी, धपका भात, काजू, किशमिश, नारियल और भी बहुत कुछ। उस दिन जब उस जगह हम काम पर पहुँचे तो हमने पाया कि हमारे दोपहर के भोजन का कोई इंतज़ाम नही किया गया था। हमने इसके बारे में पहले से बात नहीं की थी क्योंकि हमने सोचा था कि उसका इंतज़ाम तो हुआ ही होगा। लेकिन जब बातचीत होने लगी तो मालिक लोग कहने लगे- इस दुविधा को पैदा करने में हमारा ही दोष था। अब हम क्या करते? मैं इस तर्क के सन्दर्भ में संस्कारों, मर्यादाओं और नीतिशास्त्रों के नियमों को सिरे से ख़ारिज करता हूँ। अपनी भूख को मिटाने के लिए मैंने वही किया जो ज़रूरी था! यह क्या चोरी हुई?
उस तूफानी रात के बाद अपना काम ख़त्म कर हमने अपने गमछे, मालिक के सामने फैला दिए और कहा- “अब हम नहीं खा पाएँगे। अब घर जाकर आराम करना चाहते हैं। खाना अब तभी गले के नीचे उतरेगा जब हम नहा धो लेंगे। आप हमें केले के पत्ते में बाँध कर खाना दे दीजिये हम उसे लेकर घर चले जायेंगे।” उस आदमी ने दुखी होकर कहा- “मैं क्या दूँ तुम्हें? जो ले जाना है, जितना ले जाना है, तुम लोग ले जाओ. मैं अब इस खाने का क्या करूँगा?”
कहते हैं न-अपना हाथ जगन्नाथ- तो अब सारी ताकत हमारे हाथों में आ गयी। हमने अपने गमछों को भर लिया और घर ले गए। घर वाले उस दिन बहुत खुश हुए थे। जब मेरे माता-पिता और भाई बहन सोकर उठे थे और इतना सारा खाना देखा था तो वे ख़ुशी से उछल पड़े थे। लेकिन उनकी ख़ुशी देख मैं दुखी हुआ था, इसलिए नहीं कि बेचारे मालिक का कितना खाना बच गया था बल्कि इसलिए कि मेरा गमछा दूसरों के मुकाबले कितना छोटा था जिसकी वजह से मैं कम खाना ला पाया था।
एक बार और ऐसी दावत करने का मौका आया था। उस बार मटन और पुलाव था खाने में। चूँकि मालिक मेरा जानने वाले था, अगले दिन बाल्टी लौटाने का वादा कर, मैंने उससे उसकी पीतल की बाल्टी घर ले जाने के लिए माँग ली थी और बाल्टी को बचे हुए खाने से ऊपर तक भर लिया था। मैं यकीन रखता हूँ कि खुशियाँ बाँटने से बढ़ती हैं उर चूंकि इतना सारा खाना हमारे लिए बहुत था इसलिए मैंने अपने पड़ोस के गरीब लोगों को भी खाने पर बुला लिया। उनमें से एक लड़का जिसका नाम सुख था, जिसकी माँ को मैं खुरि माँ कह कर पुकारता था, खूब सारा खाने लगा और बहुत निर्लिप्त भाव से कहने लगा – “ हम इस तरह के खाने को जानते हैं, जिसने कभी भी घी नहीं खाया होगा पहले, वह इस खाने को पचा नहीं पायेगा।”
अगले दिन खुरि माँ लोटा लेकर बार–बार झाड़ियों में जातीं दिखीं। वे मुझपर गालियों की बौछार भी करती जा रही थीं। उनकी गलती नहीं थी-दोष तो उस खाने में था जो मैं लाया था!
हमारा देश साधु महात्माओं का देश है। यहाँ की धरती पवित्र है। कुछ अधिक ही पवित्र!इसलिए ईश्वर भी इसकी चुम्बकीय ताकत से अछूता नहीं रह पाता है वह और बार–बार अलग-अलग अवतारों में यहाँ जन्मने के लिए लौटता है। यह कितनी दिलचस्प बात है कि इस पृथ्वी पर दो सौ उन्नीस देश हैं लेकिन ईश्वर किसी और देश से इतना प्यार नहीं करता है। वह कहीं भी अपने अवतारी रूप में जन्म नहीं लेता है बस यहीं आता है बार-बार, कभी वराह बन, कभी कछुआ बन, कभी आधा मनुष्य आधा सिंह बन – अपने नरसिंह अवतार में, हमारे संग-साथ रहने। इसका सीधा अर्थ यह हुआ कि हमारा देश पवित्रता से कूट-कूट कर भरा हुआ है। ईश्वर को अलबत्ता समझना चाहिए था कि इस देश की बहुसंख्यक जनता अनपढ़ और निरक्षर है। ईश्वर को अपने सन्देश ऐसी भाषा में देने चाहिए थे जो सात सौ करोड़ जनता तक पहुँचे। ऐसी भाषा – जिसे जरावा, मुड़िया, मुंडा और संथाल भी समझें। उसने ऐसा क्यों नहीं किया यह मेरी समझ से बाहर है।
ईश्वर के इन अवतारी देवताओं के अनुयायी भी ईश्वरीय संदेशों को संस्कृत में प्रसारित करते हैं। वे कहते हैं –लालच को गले मत लगाओ, हरगिज़ मत पालो उसे, लालची मत बनो, याद रखो लालच पाप है और पाप तुम्हें नरक की और ले जाता है! लेकिन साधारण मनुष्यों ने इस बात को न समझा है न माना है। वे कहते हैं-“लालच मत करो, इसका क्या मतलब है? ये धर्म गुरु तो प्रोनामी की विधि के लिए आम जन से मोटा पैसा हथिया लेते हैं। इस तरह पैसा लूट-लूटकर, अब तक तो ये करोड़पति हो गए होंगे! ये हमें लालच ना करने का कैसे सन्देश दे सकते हैं? अगर ये अपने प्रवचनों की क़द्र करते हैं तो अपनी विलासिता को पहले त्यागें फिर इस तरह का प्रवचन हमें दें!”
इस बीच हमें चौबीस परगना में एक काम की खबर मिली। अन्नप्राशन समारोह का सन्देश था। नवजात बच्चे को पहली बार अन्न खिलाने का उत्सव मनाया जाना था। लगभग तीन सौ अतिथियों को निमंत्रण था। चावल, बेगुनभाजा, मछली की मुंडी के साथ दाल, कटहल की रसेदार सब्जी, रुई मछली का झोल, कशामान्ग्शो, आम की चटनी और पापड़ खिलाये जाने थे।
इसी मालिक की एक लड़की की शादी जाधवपुर में हुई थी जिसके बहू-भात समारोह में हमारे साथी नरेश ठाकुर ने खाना पकाया था। उसकी पाककला से प्रसन्न हो मालिक ने तय किया था कि जब भी उन्हें पोता पैदा होगा वे उसके अन्नप्राशन समारोह में उसी ठाकुर को कलकत्ते से बुलवाकर, उसी से खाना बनवायेंगे। इसीलिए जब यह शुभ दिन आया तो उन्होंने नरेश ठाकुर को इस आयोजन के लिए तय कर लिया।
नरेश ठाकुर ने थोड़ा सोचने के बाद इस काम के लिए हामी भर दी थी। उस वक़्त वह क्या जानता था कि इस अवसर से भी बड़ा एक अवसर कलकत्ता में उसी दिन उपस्थित हो जायेगा और वह अवसर भी कोई छोटा -मोटा अवसर नहीं होगा, बल्कि महादेव साहा के साथ काम करने का बहुत बड़ा अवसर होगा। महादेव साहा, प्रसिद्ध महादेव डेकोरेटर्स के मुखिया थे। उनके साथ काम करने का अवसर कोई कैसे ठुकरा सकता था भला? वे वही महानुभाव थे जो साल भर हमें काम दिलवाते थे। उन्हीं की अपनी लड़की की शादी पड़ रही थी उसी दिन। उन्होंने पहले से ही घोषणा कर दी- “तुम्हें विवाह समारोह में भोजन पकाने की ज़िम्मेदारी लेनी होगी नरेश ठाकुर, मुझे परवाह नहीं है कि तुम्हें कितने और आयोजनों में जाने का न्योता होगा उस दिन। तुम ठीक से प्रबंध कर लो, दिन व्यस्थित करो, तुम्हें ही मेरी लड़की के जीवन के इस विशेष दिन पर खाना पकाना होगा। यदि तुम पकाने से मना करते हो तो समझो हमारा व्यावसायिक रिश्ता समाप्त हुआ। इसके बाद से मुझसे उम्मीद मत करना कि मैं तुम्हें यहाँ या कहीं और काम दिलवाऊँगा।”
अब क्या किया जा सकता था? चौबीस परगना के सैकड़ों लोग नरेश ठाकुर के हाथ का खाना खाने को उत्सुक थे और इंतज़ार में बैठे थे। घनघोर दुविधा उभर गयी। सब सोच में डूब गए। तब मेघा ने कहा- “मोना और दुखे को भेज दो, दोनों संभाल लेंगे”
“क्या तुम लोग संभाल लोगे?”नरेश ठाकुर ने पूछा। इस समय तक मैं आत्मविश्वास की रौशनी से दीप्त होने लगा था,- “मैं संभाल लूँगा।” मैंने कहा- नरेश ठाकुर ने इस पर कहा – “वहाँ पहुँच कर कह देना कि मैं अचानक अस्वस्थ हो गया हूँ इसीलिए नहीं उपस्थित हो पाया। करार की बची हुई राशि काम खत्म करने के बाद माँग लेना।”
इस निर्णय के बाद हमें शाम को चल देना था और मिट्टी के चूल्हों को पहुँचते ही तैयार कर लेना था। खाना कल सुबह से पकना शुरू होता। उसके अगले दिन हमें लौट आना था। तीन दिनों के वेतन के बारे में सोच कर ही मन बल्लियों उछलने लगा था। अन्य रोज़गारों के मुकाबले रसोई पकाना स्थायी ढंग का काम नहीं है। महीने दो महीने में एक दो या तीन बार ही इस किस्म का अवसर मिलता है। हमारी ख़ुशी का ठिकाना नहीं था। हमें तीन दिन के पैसे एक मुश्त मिलने वाले थे।
जब तक हम काम वाले पते पर पहुँचते सूरज डूबने लगा था। चारों और केलों के बागान, सन और गेंहूँ के खेत पसरे हुए थे। दूर से एक सर्पाकार रेलवे लाइन अकेली चलती हुई दिखलाई पड़ रही थी। समारोह वाले घर को सजाया जा रहा था। मुख्य द्वार के सामने बाँस की बल्लियाँ ज़मीन में गाड़ी जा रही थीं जिन्हें फूलों से अगले दिन सजाया जाना था। एक आदमी सूखी लकड़ी के एक मोटे तने को कुल्हाड़ी से छोटे टुकड़ों में बाँट रहा था। उन लकड़ियों के टुकड़ों से चूल्हा जलाया जाना था जिसपर खाना पकता। यहाँ बिजली नहीं थी। एक अन्य आदमी पेट्रोमक्स-लालटेनों को किरासन तेल से भर रहा था। जिससे वे देर तक जलें और रौशनी बनी रहे। वहीँ आम के पेड़ के तले, विशाल आँगन में एक आरामकुर्सी पर, घर का महान मुखिया-महामहिम बारोकोर्ता बैठा हुआ था। उसने एक महीन धोती, लुंगी की तरह बाँधी हुई थी जो कहीं–कहीं सिकुड़ गयी थी और कहीं–कहीं कड़क बनी हुई थी। उसका धड़ नंगा था। उसकी कमर पर एक सफ़ेद धागा चमकदार पवित्रता से झूल रहा था। ताड़ के पत्ते से बने एक पंखे से वह स्वयं को हवा कर रहा था। उसके सामने एक छोटी चटाई पर एक स्वस्थ, गोरे- चिट्टे बच्चे को लिटाया गया था। उसी बच्चे के अन्नप्राशन का उत्सव मनाया जा रहा था। उस बच्चे के हाथों, गला, कमर – आदि अंगों में ऊपर से नीचे तक सोने के आभूषण पहनाये गए थे। ये बच्चे कितने सौभाग्यशाली होते हैं, जिस दिन से पैदा होते हैं उसी दिन से सोने के स्वामी हो जाते हैं! यह ऐसा अधिकार होता है जिसे हम जैसे लोग दस पीढ़ियों तक भी अर्जित नहीं कर पाते हैं।
जैसे ही हम अपने सामानों के साथ उसके दरवाज़े के अन्दर प्रवेश करने लगे उसने टोका, –“नरेश कहाँ है?वह यहाँ नहीं आया?क्यों?”
“उसका स्वास्थ्य…”मैं हकलाने लगा। इसके पहले कि मैं अपनी बात पूरी करता वह गरजा- “उसका स्वास्थ्य ख़राब है? वाह! आज ही के दिन उसका स्वास्थ्य ख़राब हो गया, अचानक? –वाह ..वाह यही कहना चाहते हो न तुम?” फिर कुछ क्षण एक भूखे बाघ की तरह गौर से देखते हुए उसने कहा-“अब बताओ तुम दोनों में से कौन पकाएगा? तुममें से कौन ठाकुर है?”
हरहराते, डगमगाते हुए मैंने अपनी दायीं ऊँगली दुखे की और इंगित की और उसी पल मालिक ने अपनी बायीं ऊँगली मेरी और इंगित कर कहा – “देखो इधर…” हमने उसकी ऊँगली की दिशा में उसी आदमी को देखा जो सूखी मज़बूत लकड़ी के तने से इंधन के लिए लकड़ियों के टुकड़े कर रहा था – “मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता, तुममें से कौन पकाने वाला है लेकिन यदि खाना ख़राब बना तो मैं उसी लकड़ी के तने को तुम्हारी पीठ पर तोडूँगा, यह भूलना मत।”
शाम रात में घुल गयी और रात चुप और भारी हो गयी। हम दोनों को नींद नहीं आ रही थी। हमें रात का भोजन दिया गया था लेकिन हम दोनों की स्थिति खाने की नहीं थी। हम दोनों भय से आधे हो रहे थे और दिया गया ताज़ा पाना माछेर झोल और चावल भी खा ही नहीं पा रहे थे। हमारे भीतर बैठा भय बुदबुदा रहा था,-“यह भोजन कहीं तुम्हारे जीवन का अंतिम भोजन न हो जाये।”
कल के लिए चूल्हे तैयार हो चुके थे। हम चूल्हों के नजदीक ही सोये। वहाँ मच्छर भी नहीं लग रहे थे लेकिन फिर भी नींद हमसे कोसों दूर थी। मैं अपनी काबिलियत जानता था। मैं खाना पकाने में माहिर था और मुझे इतना विश्वास था कि लकड़ी का वह चैला मेरी पीठ पर नहीं टूटने वाला था। दुखे मुझपर सहजता से विश्वास नहीं कर पा रहा था लेकिन मैं तो मैं ही था। इस जानकारी के बावजूद कि कभी–कभी दुनिया के सबसे काबिल रसोइये से भी गलती हो जाया करती है और वह बहुत ख़राब व्यंजन बना देता है और जिस दिन यह बुरा समय उतरता है उस दिन, सैकड़ों बार कोशिश करने पर भी चीज़ें सही नहीं हो पाती हैं।
मध्य रात्रि के समय दुखे ने मेरी कान में फुसफुसाया-“एई मोना, सब सो चुके हैं, चलो अब हमलोग यहाँ से भाग चलें। अभी भाग चलेंगे तो सुबह की पहली ट्रेन पकड़ लेंगे, वरना हमारा क्या होगा तुम समझ लो। ऐसे लोग हमारे बनाये खाने को एक क्षण सराहेंगे और दूसरे ही क्षण थूक देंगे। ये लोग अच्छे लोग नहीं हैं। यदि हमसे गलती हुई तो ये हमें पीट-पीटकर ख़त्म कर देंगे !”
लेकिन मैं दुखे की तरह नहीं सोच रहा था। मैं सोच रहा था यदि हम भाग खड़े हुए तो मालिक लोगों का अत्यंत बुरा हश्र होगा। आमंत्रित अतिथियों को खिला ना पाने से उनका क्रोध बढ़ेगा, वे हमें जाधवपुर तक ढूँढते चले आयेंगे और वहाँ पकड़ कर जब मारेंगे तब हमें पनाह नहीं मिलेगी। देखने वाली जनता भी हमें नहीं बचाने आएगी और मालिकों का ही समर्थन करेगी। और तो और हमपर आपराधिक केस दर्ज होने की सम्भावना भी बन सकती है। मैंने दुखे को ये सारी बातें समझायीं और कहा- “हमें अपने भाग्य को अब स्वीकार कर लेना होगा, भागने से काम नहीं बनेगा। मुझपर भरोसा रखो। खाना इतना भी बेकार नहीं बनेगा। तुमने हमारा बनाया खाना तो खाया ही है न? बताओ क्या वह इतना बुरा होता है? नहीं न? फिर इतना भय क्यों?”
इसके बाद दुखे उस दिन बहुत उम्दा सहायक सिद्ध हुआ था। मैंने भी खाना बढ़िया बनाया था। अतिथियों ने प्रत्येक चीज़ की प्रशंसा की थी। प्रचलित परंपरा थी कि जब अतिथि खाने बैठते थे तो उनसे पूछा जाता था,-“खाना कैसा है?” और वे उत्तर देते थे,-“बहुत बढ़िया!”
लेकिन हर अच्छी चीज़ दूसरी अच्छी चीज़ों को जन्म नहीं देती। यह हमें तब समझ में आया जब अंतिम अतिथि खा कर उठ रहा था, जो परिवार का दामाद था और साधारण व्यक्ति नहीं था। वह एक स्थानीय गुंडा था! उसके पास दो लारियां थीं। वह अपने प्रिय साले के साथ केले के बागान में बैठा, रसीली कलेजी का शोरबा खाते हुए शराब पी रहा था। जब वह खा-पी चुका तो उसने दुखे को देखा और पहचान लिया,- “ अर्र्रे…तुम्हें तो मैंने अपने पारा में कुछ ही दिनों पहले देखा था। तुम तो एक नाले में जमा गन्दगी को साफ़ कर रहे थे। नरेश ने तुम्हें ठाकुर की तरह सजा कर यहाँ भेज दिया?”
यह सच था कि हमलोग रोज़ खाना बनाने का काम नहीं करते थे। विवाह और मृत्यु समारोह का काम हमें रोज़ नहीं मिलाता था। लेकिन भूख तो हर दिन सताती थी। हताश और मजबूर हो हम जो काम मिलता था उसे ही हाथ में ले लेते थे। विशेष तौर से दुखे कुछ भी कर लेता था। वह गड्ढे खानने का काम, राजमिस्त्री की सहायता और बंद नालों, तालों की सफाई भी कर लेता था। हो सकता है दामाद ने उसे काम करते देखा हो और उसे दुखे का चेहरा याद रह गया हो।
जब तक हम प्रतिक्रिया दे पाते, दामाद हमें केले के बागान के अँधेरे वाले हिस्से में ले गया और अपने साले की दृष्टिसे दूर ले जाकर फिर पूछने लगा,-“कौन हो तुम लोग? तुम्हारा नाम क्या है? बताओ तुम्हारी जाति क्या है?” पूछताछ और डर ने हमारा रहस्य खोल दिया – मैं नमाशुद्र हूँ और दुखे, कावोड़ा है, एक पूर्वी बंगाल से दूसरा पश्चिमी बंगाल से है।
इस समाज में कुछ लोग होते हैं, जो दूसरों को भयाक्रांत करने और उन पर ज़ुल्म ढाने का मौका ढूँढते रहते हैं। उदाहरण के लिए-यदि राह चलते कोई पाकेटमार दिख जाता है जिसे लोग पीट रहे होते हैं तो ऐसे लोगों के हाथ भी खुजलाने लगते हैं और वे भी उक्त पाकेटमार पर दो हाथ जमा देते हैं। इसी तरह दूर से यदि कोई, किसी अनजान व्यक्ति को देखकर चिल्ला उठता है- “अपहरणकर्ता,” तो वे सब उस अनजान को पूरे जोश से थूरने लगते हैं बिना इस बात की जाँच किये कि वह व्यक्ति सचमुच का अपहरणकर्ता है भी या नहीं! यह दामाद भी ऐसा ही था। उसने हमपर सितम करना शुरू कर दिया। पहले उसने ज़मीन पर हमारी नाक रगड़वायी, अपने थूक को चाटने को कहा, फिर उकड़ूं बैठा, कान पकड़ने को कहा और हमपर थप्पड़ बरसाने लगा। एक घंटे बाद वह चिल्लाया-“ अब भाग साला … भाग यहाँ से।”
कुछ लोगों के लिए यह सब खेल की तरह होता है। मनोरंजन का तरीका लेकिन हमारे लिए यह अपमान था। घोर अपमान–मौत के बराबर अपमान।
सुबह लगभग हो चुकी थी। सूरज उगने से पहले हमलोग चुपके से चल दिए-बिना किसी को कुछ कहे। बिना अपना वेतन लिए। हम किसी को अपना चेहरा दिखाने के काबिल नहीं बचे थे। दो बेचारे, मजबूर जानवरों की तरह हमने पलायन किया। रेलवे लाइन पर चलते हुए हमने अपने-आप को खूब कोसा अपनी इस बदज़ात ज़िन्दगी को लताड़ा। ऐसा नहीं था कि इस ज़िन्दगी को हमने चुना था, फिर इसमें हमारी क्या गलती थी? जातिगत विद्वेष से भरा यह समाज हमें कमतर इंसानों की तरह देखता था। जैसे हम चोर उचक्के, उठाईगिरे हों। कोई भी व्यक्ति हमारे साथ किसी भी प्रकार की ज़ोर ज़बरदस्ती, और अन्याय कर सकता था। उसे कोई दोषी नहीं ठहराता!
उसके बाद मैंने कभी रसोई का कम नहीं पकड़ा। कई बार मुझे न्योता मिलता रहा – “आ जाओ पिकनिक पर खाना बना दो।” लेकिन मैं हाँ नहीं कर पाता था। मुर्शिदाबाद, सुन्दरवन, तला या दामोदर नदी का किनारा भी मुझे हाँ बोलने के लिए तैयार नहीं कर पाया उन दिनों। और यह भी तो है ही कि रियाज़ का अभाव इन्सान के हुनर को भोथरा कर देता है- वही मेरे साथ हुआ। खाना बनाने का प्रस्ताव लगातार अस्वीकार कर देने से, मैं भी कभी बढ़िया खाना बनाता था यह बात मैं भी खुद भूल गया। बहुत सालों बाद फिर मुझे यह बात याद आई। बाईपास के पास मुकुंदपुर में बधिर और मूक बच्चों के लिए एक स्कूल खुला जिसे सरकार द्वारा अभी मान्यता नहीं मिली थी फिर भी साठ सत्तर बच्चे बंगाल के विभिन्न कोनों से आकर यहाँ रहने लगे थे। चूँकि वह एक रिहायशी स्कूल था इसीलिए बच्चों को स्कूल में ही रहना था लेकिन उनके खाने की समस्या सुलझी नहीं थी। कहाँ से इंतज़ाम हो? क्या किया जाये?
वह इलाका बहुत निर्धन था। वहाँ रहने वाले ज़्यादा लोग दिहाड़ी मजदूर थे। उनमें से कईयों को खाना बनाना आता था लेकिन स्कूल में यह काम करने को कोई तैयार नहीं हो रहा था। सबको संशय था – पता नहीं इस काम के पैसे कभी मिलेंगे कि नहीं? पैसे का आश्वासन सरकारी मान्यता पर टिका हुआ था। एक और संशय इनके मन में भर रहा था –क्या पता सरकारी मान्यता मिलने पर अधिकारी हमें बर्खास्त कर दें और किसी और को नियुक्त कर लें। जो लोग लाखों गलत काम करते हैं वे लोग यह भी तो कर ही सकते हैं। सब गोरखधंधा चलता है अधिकारियों के बीच।
उस वक़्त मैं बेरोज़गार था और अपनी पत्नी की तनख्वाह पर गुज़र-बसर कर रहा था। वह आँगनबाड़ी योजना के अंतर्गत आने वाले – छातुर स्कूल में शिक्षिका थी। मैंने बधिर –मूक बच्चों के स्कूल की नौकरी करना स्वीकार कर लिया। मैंने सोचा–अगर मुझे कभी वेतन मिल तो ठीक, अगर नहीं मिला तो भी खाने के लिए एक मुँह घर में कम हो जायेगा होगा। मेरी पत्नी पर कम दबाव रहेगा। बस यही सब सोचा और स्कूल में लग गया।
रिहायशी स्कूल में अच्छा खाना बनाने की संभावनाएँ कम थीं। जिस अच्छे खाने का मैं जानकार था उसमें कई महँगी और गुणवत्ता वाली चीज़ों का प्रयोग किया जाता था, बढ़िया कच्चा माल भी ज़रूरी था। यह सब, इस इलाके में मिलना संभव नहीं था। यहाँ हमें कुछ पिचके सेम, सड़े आलू, कीड़े खाए बैगन, सिकुड़े पत्तों वाले साग, जुआई लौकी और सड़ी मछली ही मिलती थी। हम बड़ी मात्रा में बाज़ार से यही सब ख़रीद कर लाते थे और एक जगह पटक देते थे। फिर उनमें से छंटनी कर, खाने लायक चीज़ें चुन कर पकाते थे। जैसे मैं बढ़िया खाना नहीं बनाने से भूल गया था, ठीक वैसे ही वहाँ के सभी लोग अच्छा खाना नहीं खाने से, स्वादिष्ट खाने का स्वाद विस्मृत कर चुके थे।
एक दिन की घटना है, गोदाम में रखी दाल ख़त्म हो गयी थी। उस दिन इतवार था सो बाज़ार भी बंद था। अब क्या किया जाता? मैंने हॉस्टल के अधिकारी को कहा –“ मुझे एक विधि आती है जिससे गीला भात, दाल जैसा लगेगा।” “अच्छा? तुम बना सकते हो? तो बनाओ।”
मंज़ूरी मिलने के बाद मैंने प्याज़, लहसुन, हरी मिर्च, थोड़ा अदरक और कुछ टमाटर लिए और उन्हें तेल में छान लिया। उसमें फिर मैंने हल्दी, तेजपत्ता, नमक, थोड़ा चीनी और जीरे का तड़का लगा दिया और इन चीज़ों को पकते हुए भात में मिला दिया। उस दिन किसी ने दाल की कमी महसूस नहीं की। कुछ को तो यह नया व्यंजन लगा और वे उसे मज़े-मज़े में कटोरे से ही पी गए। सच कहूँ तो अपने इतने सालों के पकाने के अनुभव में यह मेरी सबसे बड़ी इजाद और जीत थी। कुछ नखरा करने वाले लोग जो अपने कमरों में ही रहते थे और मेस में सिर्फ़ खाने आते थे उन्होंने भी उस दिन कहा –“ आज दाल बहुत स्वादिष्ट बनी है.” उस दिन मुझे खुद ही अपने हाथ चूमने का मन किया!
प्यारे पाठकों! अभी तक आप मेरे अस्वादिष्ट लेखन से गुज़र रहे थे। लेकिन अब मैं आपको और नहीं रोकूँगा-बस आपसे मुर्गा बनाने की एक विधि साझा करूँगा जिसे मैंने महाश्वेता देवी के लिए पकाया था और जिसे खाकर उन्होंने मेरी तारीफों के पुल बाँध दिए थे।
सामग्री –एक किलो बिना हड्डी का मुर्गा, सौ ग्राम खट्टा दही, सौ ग्राम शुद्ध घी, सौ ग्राम काजू, पचास ग्राम अदरक, पचास ग्राम लहसुन, सौ ग्राम पोस्तो, तीन सौ पचास मिलि. रिफाइंड तेल, आठ से दस हरी मिर्च, तेजपत्ता, आधे नारियल का दरदरा पीसा हुआ गूदा, और दस ग्राम इलाइची ले लें।
विधि:
पहले मुर्गे को छोटे टुकड़ों में काट लें, जैसे सोया बड़ी होती है वैसे ही साइज़ में। अच्छी तरह धोने के बाद उसे थोड़े नमक, अदरक के रस, कुटे लहसुन, और हरी मिर्च में लपेट कर आधे घंटे के लिए रख दें। इस बीच नारियल के गूदे को पानी में फुला लें और अदरक, लहसुन और पोस्तो को पीस लें। कुछ हरी मिर्चों को बीच से काट लें।
कड़ाही में तेल गरम करें और मुर्गे के टुकड़ों को उसमें डाल दें। जैसे मछली भूनते हैं, वैसे ही उसे भूनें धीमी आँच पर।
अब थोड़ा घी रिफाइंड तेल में डाल दें। फिर अदरक लहसुन का पेस्ट डालें और पोस्तो का पेस्ट भी उसमें मिला दें। नारियल को पानी से निकाल उसका दूध इस पेस्ट में मिलाएँ। अब दही डालें और इस मसाले में भुने हुए मुर्गे, तेजपत्ते, नमक और हरी मिर्चें को डाल दें। आँच धीमी कर लें। जब मुर्गा पक जाए तो उसमें बचा हुआ घी, चीनी और इलाइची का पाउडर मिला दें। उसमें हल्दी बिलकुल ना डालें। मुर्गे का रंग सफ़ेद ही रखें-प्लीज़। जब पूरी तरह से मुर्गा पक जाये तो आँच बंद कर थोड़ी देर बर्तन को चूल्हे पर ही छोड़ दें।
उसके बाद आप इसे चावल, रोटी या जिससे भी रुचे उससे खाएँ। अगर आपको यह व्यंजन पसंद आये तो मुझे ज़रूर बताएँ –आख़िरकार यह मेरी इजाद की हुई विधि से बना व्यंजन है- और यदि आपको यह पसंद न आये तो समझ लीजिये दोष आपकी पाककला में है, इसमें मेरा दोष कत्तई नहीं है!
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