आमों का मौसम पूरे शबाब पर था। यह दृश्य उन्हीं दिनों का है। मेरे पति की माँ- बेला, आँगन में बैठी थी और अपने सामने रखे आमों से भरे टोकरे में से एक –एक आम को बड़ी निपुणता से अपने हाथों के बीच दबा दबाकर आमों का रस निकालती जा रही थी। और फिर उस रस को वह तेल चुपड़े मिट्टी के साँचों में ढारती जा रही थी। रस की एक परत के ऊपर वह दूसरी परत जमाती जा रही थी। जब परत की मोटाई अच्छी खासी हो जाती थी तभी वह साँचों में रस ढारना बंद करती थी। इसके बाद इन साँचों को एक थाली के ऊपर रख वह साँचों पर एक मलमल का महीन कपड़ा बांध देती थी और उन्हें धूप में सुखाने के लिए रख देती थी।
दरअसल वह इस तरह आम शोत्तो तैयार कर रही होती थी। आम शोत्तो यानि पारभासी,स्वर्णिम,खट्टा- मीठा, हल्का लसलसा पापड़। काली मिट्टी से गढ़े चार इंच के साँचों में महीन चक्र बने हुए थे जो एक दूसरे में समाते हुए तरह –तरह के फूलों के आकार की संरचना करते थे।उनके इर्द- गिर्द बिंदियों की माला बनी हुई होती थी। दूसरा साँचा पेड़ और उसकी हरियाली को दर्शाता था। उसमें तीन चक्रों की संरचना ताश के पत्तों में चिड़ी सी प्रतीत होती थी। गेरुआ मिट्टी का एक साँचा पत्ते या नाव की तरह लगता था। बेला, विदेश में पढ़ने वाले अपने प्यारे पोते के लिए इन्ही सुंदर साँचों में आम का चटपटा व्यंजन तैयार कर रही थी। विदेश में रहते हुए पोते को अपने देश और घर के खाने की खूब याद आती थी। वह देश से आए इन पापड़ों को कभी यूंही चुभला लेता था तो कभी दूध में भिगो कर खाता था और देश के आमों की गंध और स्वाद को महसूस कर लेता था।
बंगाली मिठाई बनाने का एक सुंदर साँचा-छाँछ
वह तीस साल पहले की दुपहरिया थी जब इन साँचों को अंतिम बार प्रयोग में लाया गया था। एक काली मिट्टी से बने साँचे में अभी भी आम के रस की कुछ सूखी बूंदें दिखलाई पड़ जाती हैं जो संभवतः साँचे के कोरों में चिपकी रह गई थीं। बेला जब 1997 में गुज़र गयीं तो मिट्टी, लकड़ी और पत्थर से बने ऐसे चालीस साँचे मेरे लिए विरासत स्वरूप छोड़ गयीं। अब कुछ ही कारीगर बचे हैं, कलकत्ता के एक ही बाज़ार के ठिकाने में जो मिठाई बनाने के लिए ऐसे साँचे तो तैयार करते हैं, लेकिन वे साँचे सिर्फ लकड़ी के होते हैं। बांग्ला में इन साँचों को छाँछ कहते हैं।
आम शोत्तो या आम के पापड़ हथेली बराबर साँचो में बनाए जाते थे।उससे छोटे छाँछों को बनाने में अधिक कौशल की दरकार होती है और उसीसे छेने की प्रसिद्ध बंगाली मिठाई –सोंदेश पर महीन डिज़ाइन उकेरे जाते हैं। इसे बंगाल और जहाँ भी बंगाली पहुँच कर बस गए हैं, उन सभी जगहों पर प्रयोग में लाया जाता है। गुड़ ,चीनी की मिठास और इलाईची की खुशबू से भरी इस मिठाई को हल्की आंच पर देर तक पकाया जाता है और जब वह गाढ़ा हो जाती है तो उसे तेल चुपड़े साँचे में ढाल दिया जाता है। जब ठंडा होने के बाद मिठाई को साँचे से निकाला जाता है तो वह फूल, तितली या शंख का आकार ले लेती है। मुँह में घुलने वाली यह अपूर्व मिठाई आज भी बंगालियों को बहुत प्रिय है। इसके स्वाद को लेकर अनेक प्रयोग हो रहे हैं और चॉकलेट और नारंगी के स्वाद वाले सोंदेश आज खासे लोकप्रिय हो गए हैं। इसको बनाने की विधि में प्रयोग की बहुत गुंजाइश है जैसे किसा हुआ नारियल जब साँचों में छेने के साथ मिला दिया जाता है तो मुलायम छेने के संग दरदरे नारियल का स्वाद अत्यंत मनभावन हो जाता है। सर्दियों में जब खजूर का गुड़ बनता है तो उस ताज़े गुड़ के रस में छेने को मिलाकर गुलाबी आभा वाला एक अद्भुत सोंदेश तैयार होता है।
शादी –विवाह या ऐसे ही उत्सवी अवसरों पर कई किलो सोंदेश तैयार किया जाता है। ज़्यादातर यह मछलियों के आकार में होते हैं प्रजनन शक्ति दर्शाते या तितलियों के आकार में, विवाह युग्म दर्शाते। अलबत्ता, मुझे विरासत में मिले चालीस साँचों में से अधिकतर का आकार ज्यामितीय है और वे घरेलू उपयोग के लिए गढ़े गए हैं।
मेरे पति की नानी और परनानी इन छाँछों को अपने हाथों से गढ़ा करती थीं।बेला की माँ कादंबिनी शायद 1860 के आसपास पैदा हुई थीं और 1942 में गुज़र गयी थीं । अतीत में और पीछे जाने पर उन्नीसवीं सदी में परनानी के समय को खंगालना आज भारी काम लगता है। भारत विभाजन से पहले, आज के बांग्लादेश वाले इलाके के मायमेनसिंह जिले में उनकी रिहाइश थी। इन स्त्रियों के भीतर बसे नैसर्गिक सौंदर्यबोध ने ही उन्हें इतने सुंदर साँचे गढ़ने को उत्साहित किया होगा। ये स्त्रियाँ मातृतंत्र की प्रतीक थीं और खासी बड़ी गृहस्थियों को अकेले ही संचालित करती थीं। वे अनवरत व्यस्त रहती थीं और गृहस्थी के तंत्र के प्रत्येक बारीक पहलू का ध्यान रखते हुए सुचारु रूप से अपनी गृहस्थियों को दिशा प्रदान करती थीं। सिर्फ दोपहर का कोई पहर उन्हे खाली मिलता था जिसमें वे अपनी कलात्मकता को आकार दे सकती थीं। वही उन्होंने किया भी। दरअसल आज जो साँचे मुझे धरोहर स्वरूप मिले हैं वे उसी दोपहरी की स्त्री रचनात्मकता के बेजोड़ उदाहरण हैं।
कादंबिनी
जूट (सन) के सफल व्यापारी जगदीश गुहा के घर की ये स्त्रियाँ इतने बरस पूर्व ,’रिड्यूस,रियूज़ और रिसाइकिल, ( मितव्यविता से प्रयोग,दोबारा उसीका प्रयोग और पुनःचक्रण) के सर्वोतकृष्ट सिद्धांत की परिचायक हैं। ये मेरी पुरखिनें टूटे- फूटे सामानों को दोबारा प्रयोग युक्त बनाकर, खूबसूरत कलात्मक और उपयोगी सामान तैयार करती थीं।कितना परिष्कृत सौंदर्यबोध था उनका! यह याद कर मेरा मन इनके लिए श्रद्धा और सम्मान से भर जाता है।
बंगाल के प्रसिद्ध कान्था सिलाई से बने दोहर भी उसी कलात्मक परंपरा को दर्शाते हैं। नाजुक उंगलियां, पहनी हुई साड़ियों की कतरनों की परतें धीरे- धीरे एक दूसरे पर नायाब टाँका लगा कर सिली जाती हैं और किनारियों से धागे खींच कर सुंदर डिजाइन बनाए जाते हैं। ये दोहर बंगाल के हल्के जाड़ों में खूब सुकून देते हैं। छाँछों की तरह ये दोहर भी बंगाल की रोजमर्रा की ज़िंदगी का हिस्सा थे जो आज हर पारंपरिक शिल्प की तरह अवसान पर हैं।
पत्थर के छाँछ
पत्थर के छाँछ से परंपरा जीवित और पुनर्जीवित हुई। देवताओं को पत्थर और कांसे की थालियों, कटोरियों में फल एवं मिष्ठान समर्पित किए जाते थे। कुछ दिनों बाद पत्थर की थालियाँ टूट जाती थीं लेकिन उन्हें फेंका नहीं जाता था। उन्हें अलग –अलग आकारों में ढाल कर उनके भीतर फूलों या ज्यामितीय डिज़ाइन उकेरे जाते थे। निश्चित ही इनको बनाने में बहुत प्राविण्य और ताकत लगती होगी। मुझे बताया गया था कि नाई लोग बाल काटने के लिए जिस तेज उस्तरे- नोरून का इस्तेमाल करते हैं उन्हें ही डिज़ाइन उकेरने के काम में लिया जाता था।
मुझे जो साँचों का सेट मिला उनमें पत्थर वाले साँचे हल्के रंग के हैं। उनकी संख्या 18 है। दो में ज्यामितीय डिज़ाइन बने हुए हैं। मैं आज अफसोस करती हूँ कि मैंने बेला से क्यों नहीं पूछा उनके आकार के बारे में। वे कटोरे के आकार के हैं। क्या वे बड़े सोंदेश बनाने के लिए प्रयोग में लाए जाते थे, या बस यूंही उनका यह आकार निर्धारित हुआ? दो छोटे तिकोने मिट्टी के छाँछों में एक ओर डिज़ाइन बने हुए हैं और दूसरी ओर बाहर की ओर झाँकते नन्हे तने से दिखलाई पड़ते हैं। ऐसा लगता है जैसे वह कोई सरकारी मुहर हैं जिसे बड़े आकार के छेने के गोलों पर छापा जाता रहा होगा।
चार लकड़ी के छाँछ भी हैं जो जोड़ी में हैं और उनमे सादे डिज़ाइन बने हुए हैं। दोनों के बीच छेने को दबाकर रखने पर डिजाइनदार सोंदेश प्रकट हो जाता था। ये वाले साँचे उन साँचों से भिन्न हैं जिनमें मिठाई के एक ही ओर डिज़ाइन बनता था। लकड़ी के इन साँचों का प्रयोग किसे हुए दरदरे नारियल के साथ मिलाकर बने सोंदेश के लिए किया जाता था।
मिट्टी के साँचे कुल 24 हैं। ये अधिकतर काली मिट्टी से बने हुए हैं। हालांकि कुछ भूरे रंग के भी हैं। इनमें आकार और डिज़ाइन की विविधता है। ये अंडाकार, अर्धचंद्राकार, गोल ,पत्तियों और शंखों के आकार के हैं। बंगाल की नदियों के पास की मिट्टी चिकनी और लचीली थी इसीलिए इनका शिल्पकला में खूब उपयोग होता था। सबसे पहले मिट्टी को गूँथा जाता था फिर उसे मनचाहे आकार में ढाला जाता था। उसके बाद नोरून से उनमें, फूल पत्ती, ज्यामितीय डिज़ाइन और नाम उकेरे जाते थे। यह काम बहुत संयम और कौशल से करना होता था क्योंकि मिट्टी बहुत लसदार और लचीली होती थी और शिल्प के बिगड़ जाने का डर बना रहता था। डिज़ाइन बनाने के बाद गीले साँचों को धूप में सूखने के लिए रख दिया जाता था। इसके बाद इन्हे भट्ठी में पकाया जाता था। आंच की तीक्षणता के आधार पर इन साँचों का रंग काला या भूरा हो जाता था।
मिट्टी के और छाँछ
पारंपरिक बंगाली घरों में हर मुख्य भोजन के बाद मीठा खाने का रिवाज़ था। सोंदेश-मुलायम, हल्का तेल विहीन होने के कारण दिन में चार बार तक खाया जा सकता था। परिवार के बुजुर्ग रिश्तेदार, वे महिलायें जिन्होंने अपने पति को खो दिया था, माता – पिता बेटे- बेटियाँ और उनके परिवार सब एक ही छत के नीचे रहा करते थे। दूध से बनी यह मुलायम मिठाई दंतविहीन बूढ़ों को जितनी रुचती थी उतनी ही छोटे बच्चों को। इसको खाने में चबाने की मेहनत नहीं करनी पड़ती थी। कांसे के लोटे में भरे पानी या नींबू के शर्बत के साथ इसे अतिथियों को भी पेश किया जा सकता था। आश्चर्य नहीं कि जगदीश गुहा की रसोई में टोकरी भर कर साँचे क्यों रखे जाते थे!
पैन्डेमिक के दिनों में मैंने बेला की डायरी पढ़ी, जिसमें उसने अपनी हुनरमंद माँ की तारीफ में लिखा है- मेरे पिता को लोगों को घर पर बुलाकर खाना खिलाने का बहुत शौक था। वे माँ से कह- कह कर के व्यंजन बनवाते थे और उसमें भी विशेषतया मीठा। जब पधारे हुए अतिथि खाने लगते थे तो वे बड़े गर्व के साथ बताते रहते थे-“यह सब कुछ घर पर बना हुआ है।”
बेला की डायरी
हर दिन काफी मात्र में सोंदेश बनाए जाते थे। घर की गायों से प्राप्त हुआ कई किलो दूध बड़े बर्तनों में उबाला जाता था और उसका छेना बनाया जाता था। सबसे पहले का पका हुआ सोंदेश घर चलाने वाले ‘कर्ता’ को पेश किया जाता था । फिर ज्येष्ठता के नियम का पालन करते हुए अन्य पुरुषों को सोंदेश दिया जाता था । मुख्य भोजन की अनेक विविधताओं के बाद एक थाली सोंदेश पेश किया जाता था। कर्ता , बड़े बेटों और दामादों को अनेक तरह के डिजाइनों वाले सोंदेश पेश किये जाते थे। और इस तरह उन्हें प्यार और सम्मान दर्शाया जाता था। साँचों की विविधता शायद इस प्रेम को दर्शाने की भावना से भी उपजती थी। भले ही कोई एक टुकड़ा खाता हो लेकिन उसके सामने थाली भरकर सोंदेश ज़रूर रखा जाता था। स्त्रियाँ अपने हुनर को पुरुषों द्वारा सराहे जाने की अपेक्षा में बैठी रहती थीं। ये घर पर रहने वाली मामूली साक्षर स्त्रियाँ थीं। उनका जीवन अपने बच्चों रिश्तेदारों, पति और घर के इर्द-गिर्द ही घूमा करता था।
साँचों के मेरे संग्रह में 9 ऐसे हैं जिनमें नाम उकेरे हुए हैं। उनमें से एक ही लकड़ी से बना है, बाकी सब मिट्टी के हैं। जिन साँचों में अक्षर उकेरे हुए हैं उनको मैं विशेष सम्मान से देखती हूँ। बनाने वाली स्त्रियों ने अक्षरों को दर्पण छवि के आधार पर उकेरा है। अतः जब छेना साँचों में दबाया जाता है तो सोंदेश में वे बिलकुल सही- सही दिखलाई पड़ते हैं।
छह साँचों में नाम हैं। मेरे पति के नाना –जगदीश गुहा को अंग्रेज़ों ने राय बहादुर की पदवी दी थी। वे उन्नीसवीं एवं बीसवीं सदी में पूर्वी बंगाल के प्रमुख जूट व्यापारी थे।उनकी माँ और उनकी पत्नी कादंबिनी ने तीन अंडाकार साँचों में उनका नाम बड़े प्यार से उकेरा है। हो सकता है इसके अलावा भी और साँचे रहे हों जिनमें उनका नाम उकेरा गया हो लेकिन बेला के हिस्से में यही आए थे। श्री जुक्तो राय बहादुर उकेरने में स्त्रियों का मान दिखलाई पड़ता है। अंग्रेजी में अनुवाद करने पर श्री जुक्तो का अर्थ कुलीन अथवा श्रेष्ठ जन होता है जो इसका भी तात्पर्य था। एक अन्य साँचे में श्री जुक्तो बाबू जगदीश चंद्र खुबा हुआ है। एक तीसरे साँचे में दिल को छू लेने वाला सम्बोधन है जय जगदीश ! जगदीश यानि संसार भर का ईश्वर। यह सम्बोधन हिन्दी में गाई जाने वाली एक लोकप्रिय प्रार्थना के पहले दो शब्द भी हैं। साँचे में इस नाम का आना एक किस्म का हास्य बोध उत्पन्न करता है। परिवार का कर्ता मानो ईश्वर के बराबर की हस्ती वाला। कादंबिनी ने एक साँचे में अपने बेटे का नाम भी उकेरा है-श्री जुक्तो बाबू हेमंत। उस दौर में दामादों को भी बहुत सम्मान मिलता था। बेला की बड़ी बहन की शादी जिससे हुई उस दामाद का नाम अंडाकार साँचे में उकेरा हुआ है-श्री जुक्तो बाबू जतीन्द्र गुहा ।
एक मिट्टी के साँचे में सिर्फ जलपान उकेरा हुआ है। जिसका अर्थ मिठाई अथवा ताज़ा होने का आनंद है।लकड़ी के एक साँचे पर ओबाक यानि आश्चर्य लिखा हुआ है । क्या पता इसमें बना सोंदेश किसी अबूझ आस्वाद से भरा होता होगा जो खाने वाले को चकित कर देता हो? हो सकता हो इसको बनाने वाली अपने कौशल से सबको हैरानी में डालने की मासूम मंशा रखती हो। कितना आनंदयक है इस तरह रोजमर्रा के खाने- खिलाने में मासूमियत से भरे हास परिहास का।
वह अंतिम साँचा जिसमें एक शब्द ‘मातरम’ यानी माँ गढ़ा हुआ है बहुत महत्वपूर्ण है। बीसवीं सदी में बंगाल में उपनिवेश विरोधी, आजादी की मांग करते आन्दोलोनों की वजह से खासी उथल-पुथल मची हुई थी। आंदोलनों के उस प्रारम्भिक दौर में देश को माँ समान मान देश के प्रति प्रेम का अलख जगाया जाता था।संस्कृत में लिखा एक गीत वन्दे मातरम जिसे आज पवित्र राष्ट्रीय गीत का दर्जा मिला हुआ है, उस वक्त लोगों को औपनिवेशिक अंग्रेज़ी सरकार के खिलाफ खड़े होने के लिए प्रेरक गीत की तरह गाया जाता था। हो सकता है कि बंगाल की अति पूजनीय देवी –माँ दुर्गा को देश के प्रतीक के रूप में लोगों ने मान्यता दी होगी तभी यह गीत बंगाल के जन- जन तक पहुँच गया। यहाँ तक कि रूढ़िवादी परिवार भी आंदोलन के इस गीत से अछूते नहीं रहे। घर की औरतों ने अपनी अकूत श्रद्धा को इस तरह साँचों में ढाल मिष्टी बनाई। इस तरह वे भारत माता को बचाने के कार्यक्रम में जुट गयीं और औपनिवेशिक बंदिशों को धता बता अपने आदमियों को देश के प्रति उनके कर्तव्य के लिए चेताने लगीं।
Shonali Charlton, 2022
1990 में बेला अपनी डायरी में लिखती हैं-उनकी माँ यदि आज जीवित होतीं तो 125 बरस की होतीं। आज 2021 में सोचती हूँ तो डेढ़ सदी पुरानी बात हो जाती है। इतने बरसों के अंतराल पर, पूर्वी बंगाल के मायमेनसिंग से चलते हुए, उत्तर भारतीय मैदानी इलाके इलाहाबाद तक जाना और रहना और फिर दिल्ली जाकर बसना, जहाँ बेला के पति को विश्वविद्यालय में नौकरी मिली और वहीं रहनवारी हुई इन साँचों के लंबे सफर और उनके बचने की कहानी भी है। यह कितनी सुंदर बात है कि हर पड़ाव पर इन साँचों का उपयोग हुआ। बेला ने विरासत में मिले अपने हर हुनर को जीवित रखा और हम सौभाग्यशाली रहे कि हमें उसके हाथों से बना मृदु सोंदेश खाने को मिला। मैं जब उन साँचों को याद कर रही हूँ तो याद आता है कि उनमें से एक दो थोड़े भंग हो गए हैं। कभी –कभी सोचती हूँ, इन साँचों का सफर आखिर कहाँ जाकर खत्म होगा? कुछ इंग्लैंड में बसी मेरी बेटी के पास जरूर मौजूद रहेंगे विरासत की तरह या किसी संग्रहालय का हिस्सा हो जाएंगे।
पता नहीं कहाँ जाएंगे?
लेकिन जहाँ भी जाएँ मेरी दिली ख्वाहिश है कि उनके भीतर समाए किस्से सभी के दिलों में अपनी प्यारभरी छाप छोड़ते रहें।
बेला
V nicely written & good information